Book Title: Anekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 205
________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 13 ‘एकरात्रौषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः। न सा क्रतुसहस्रेणु प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिरः।।५१ अर्थात् एक रात के ब्रह्मचर्य से रहने वाले पुरुष को जो उत्तम गति मिलती है, वह गति हजारों यज्ञ करने वालों को भी नहीं मिलती है। यह कथन दोनों परम्पराओं में ब्रह्मचर्य की महत्ता को सिद्ध करने में पर्याप्त है। ५. अपरिग्रह (परिग्रह परिमाण) बनाम सर्वसुखकामना - जैनाचार के अपरिग्रहवाद में जहां साधु की ममत्वरहितता के कारण निर्वाणप्राप्ति का भाव निहित है, वहाँ श्रावक के परिग्रहपरिमाण में सर्वसुख की भावना छिपी हुई है। ऋग्वेद के शिवसंकल्पसूत्र में 'संगच्छध्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्' (तुम्हारी संगति समान हो, तुम्हारी वाणी में समानता हो, तुम्हारे मन में विचार समान हों) में भी सर्व सुख की भावना दृष्टिगोचर होती है। वेदों में संपूर्ण लोगों की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए जरूरत से अधिक वस्तुओं के संग्रह न करने के विधान के संकेत मिलते हैं। जैनाचार में परिग्रह के परिमाण का विधान करते हुए कहा गया है कि लोभ कषाय को कम करके, संतोष रूपी रसायन से संतुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दृष्ट तृष्णा का घात करता है और अपनी आवश्यकता को जानकर धन-धान्य, सुवर्ण, क्षेत्र आदि का परिमाण करता है, वह परिग्रह परिमाण अणुव्रत है।५२ । (ख) सप्तव्यसनत्याग - जो पुरुष को समीचीन मार्ग छोड़कर कुत्सित मार्ग में प्रवृत्ति कराते हैं, उन्हें व्यसन कहा जाता है। व्यसन शब्द यहां बुरी आदत का प्रतीक है। श्री पद्मनन्दी आचार्य ने लिखा है - ‘द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपरांगना। महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद् बुधः।।५३ अर्थात् जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन करना, शिकार करना, चोरी करना तथा परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति को इनका त्याग कर देना चाहिए। १. द्यूत - ऋग्वेद में जुआरी के परिवार का चित्रण करते हुए कहा गया है कि जुआरी के माता-पिता एवं भाई भी उसके विषय में कहते हैं कि इसे बाँधकर ले जाओ।५४ अक्ष सूक्त में जुआरी की विविध दुर्दशाओं का वर्णन करते हुए अन्त में कहा गया है कि जुआ मत खेलो, खेती करो।५५ जैन परम्परा में कहा गया है कि जिस क्रिया में पाँसे आदि डालकर धन की हार-जीत होती है, वह सब जुआ कहलाता है। विविध श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों में जुआ की पर्याप्त निन्दा की गई है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार जुआ सब अनर्थों का कारणहै - 'सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सम मायायाः। दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम्।।५७ __ अर्थात् सभी व्यसनों में प्रमुख, पवित्रता या संतोष का नाशक, छल-कपट का घर तथा चोरी एवं असत्य का स्थान ऐसे जुआ को दूर से ही त्याग देना चाहिए। पण्डित प्रवर आशाधर जी ने तो जुआ को सभी अनर्थों की जड़ कहा है- 'क्व स्वं न क्षिपति नानर्थे।५८८

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