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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012
आचार्य शुभचन्द्र ने हिंसक पुरुष के निष्पृहता, महत्ता, निराशता, दुष्कर तप, कायक्लेश एवं दान आदि सभी धर्मकार्यो को व्यर्थ माना है ।२४ मनुस्मृति में 'यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा।’२५ कहकर जहां याज्ञिक हिंसा को पाप नहीं माना है, वहां जैनाचार किसी भी प्रकार की हिंसा को विहित नहीं मानता है।
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२. सत्य - सत्य को सभी भारतीय संस्कृतियों में मानव जीवन का प्रशस्यतम गुण माना गया है। सत्य शब्द सत् से निष्पन्न होने के कारण मूलतः सत्ता या वास्तविक अर्थ का वाचक है। ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर सत्य का इसी रूप में प्रयोग हुआ है । यथा
स किलासि सत्यः।२६
(वह तू वास्तविक है ।)
मरुतां महिमा सत्यो अस्ति । २७ तयोर्यत्सत्यम्।२८ त्वं सत्य इन्द्र।२९
(मरुत् देवों की महिमा वास्तविक है ।) (उन दोनों में जो सच्चा है | )
(हे इन्द्र ! तुम सत्य हो ।)
शताधिक स्थानों पर वेदों में सत्य शब्द का प्रयोग हुआ है, जो सत्य की महत्ता का कथन करने में समर्थ है।
वेदों में सत्य के लिए ऋत शब्द का प्रयोग तथा असत्य के लिए अनृत शब्द प्रयोग किया गया है। ये प्रयोग जैन आचारविषयक ग्रन्थों में भी उपलब्ध है। वैदिक परंपरा में आचार्य शाकटायन के विचार में सत्य वह है, जो वर्तमान पदार्थ का तात्त्विक बोध कराये । ३० अर्थात् यास्क के अनुसार 'सत्सु तायते सत्प्रभवं भवतीति वा ३१ अर्थात् जो सज्जनों में विस्तार को प्राप्त होता है अथवा जो सज्जनों में प्रकट होता है, वह सत्य है । जैनाचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि-' सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यामित्युच्यते। २ अर्थात् अच्छे पुरुषों के साथ साधुवचन बोलना सत्य है । विदुर महर्षि के अनुसार छल रहित वचन सत्य है। कुल्लूकभट्ट कहते हैं कि जैसा देखा, जैसा सुना हो वैसा यथार्थ कहना सत्य है- ' यथादृष्टं श्रुतं तत्त्वं ब्रूयात्।३४ वेदों में सत्य की बहुशः प्रशंसा की गई है। अथर्ववेद में सत्य पर बल देते हुए कहा गया है प्राण सत्यवादी को उत्तम लोक में स्थापित करते हैं । ३५ असत्यवादी को वरुण के पाश में बांध लेते हैं । ३६
जैनाचार में एक श्रावक या सद्गृहस्थ के सत्य का विवेचन करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं
स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद् वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम्॥३७
श्रावक स्थूल झूठ न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवावे तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो ऐसा वचन यथार्थ भी न कहे । सत्पुरुष इसे गृहस्थ का सत्य कहते हैं । इसमें 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मो सनातनः ।।' की भावना यथावत् प्रकटीकृत है। आचार्य शुभचन्द्र ने सत्य का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि सत्य व्रत श्रुत एवं नियमों का स्थान है, विद्या और विनय का भूषण है तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति का कारण है।८ ऋग्वेद में 'सा मा सत्योक्तिः परिपातु विश्वतः ३९ कहकर सत्य को विश्व का रक्षक प्रतिपादित करते हुए उसकी महत्ता का गान किया गया है।