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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 जो राक्षसी आदत के कारण हिंसा करना चाहता है, वह अपने कर्मों से स्वयं ही मारा जाता है।
'मा हिंसीस्तन्वाः प्रजाः। मा हिंसीः पुरुषम्। इदं मा हिंसीः द्विपादं पशुम्। अश्वं मा हिंसीः। अविं मा हिंसीः। धृतं दुहानामदितिं जनाय मा हिंसीः।१८ अपने शरीर से प्रजा को मत मारो। मनुष्य की हिंसा मत करो। दुपाये मनुष्य और पशु को मत मारो। भेड़ ऊन देती है, उसे मत मारो। घोड़े को मत मारो। लोगों के लिए गाय दूध देती है, उसे मत मारो।
हिंसा के दो कारण हैं- स्वार्थ और विद्वेष। अथर्ववेद में भी स्थान-स्थान पर प्रमाद एवं विद्वेष न करने का कथन किया गया है। यथा
'मा जीवेभ्यः प्रमदः।१९ (जीवों से प्रमाद मत करो।) _ 'सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमाभिदर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।२०
(मैं तुम्हारे समान हृदय, समान प्रतियुक्त मन तथा अविद्वेष भाव को स्थापित करता हूँ, तुम एक दूसरे से ऐसे प्यार करो जैसे गाय नवजात बछड़े को प्यार करती है।)
उपर्युक्त संदर्भो से स्पष्ट है कि वेदों की मूल भावना अहिंसामय सुखशांति की ही है। वहाँ राक्षसों की जो हिंसा का भी कथन किया गया है, वह सुख-शांति की स्थापना के लिए विरोधी हिंसा समझना चाहिए।
जैन संस्कृति की तो आधारशिला ही अहिंसा है। वहाँ अहिंसा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। जैनाचार में प्रमाद के योग से स्वपर के प्राणों के पीडन को हिंसा माना गया है। आचार्य उमास्वामी का कथन है
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।२१ आचार्य समन्तभद्र स्वामीने एक सद्गृहस्थ की अहिंसा का वर्णन करते हुए लिखा है
संकल्पात् कृतकारितमननाद् योगत्रयस्य चरसत्त्वान्।
न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद् विरमणं निपुणः।।२२ मन, वचन, काय के संकल्प से और कृत कारित अनुमोदन से त्रस जीवों को जो नहीं मारता है, वह स्थूल हिंसा से विरक्त होता है। यही अहिंसाणुव्रत या एक सद्गृहस्थ की अहिंसा है। सागारधर्मामृत में कहा गया है
'आरंभेऽपि सदा हिंसा सुधीः सांकल्पिकी त्यजेत्।
ध्नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽध्नन्नपि धीवरः।।२३
अर्थात् बुद्धिमान् मनुष्य आरंभ (गृहस्थी के कार्यो) में भी संकल्पी हिंसा को सदा त्याग दे। क्योंकि बिना संकल्प के जीवों का घात करने वाले किसान से संकल्प करके जीवों का घात न होने पर भी धीवर अधिक पापी है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि हिंसा चार प्रकार की कही गई है-संकल्पी, उद्योगी, आरंभी और विरोधी। एक जैन गृहस्थ चतुर्विध हिंसा में से संकल्पी हिंसा का नियम से त्यागी होती है। शेष हिंसाओं को वह हिंसा रूप तो समझता है, किन्तु उनसे बच नहीं पाता है।