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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012
वेदों में कहा गया है कि दान से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, दिया गया दान कभी व्यर्थ नहीं जाता है। अदानी को शोक प्राप्त होता है । "
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जैनाचार में श्रावक के षट् आवश्यकों में दान का सर्वातिशायी महत्त्व है। इसे श्रावक का दैनिक कृत्य माना गया है। अपने तथा दूसरों के उपकार के लिए अपनी वस्तु का देना दान है । विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता से दान में विशेषता आती है। दान के मुख्य रूप से चार प्रकार हैं- औषधदान, ज्ञानदान, अभयदान और आहारदान ३
(घ) जलगालन - मनुस्मृति में 'वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ८४ कहकर छानकर जल पीने का कथन किया गया है। लिंगपुराण में भी कहा गया है कि -
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'संवत्सरेण यत्पापं कुरुते मत्स्यवेधकः । एकाहेन तदाप्नोति अपूतजलसंग्रही ।। ८५
अर्थात् मछलीमार एक वर्ष में जितना पाप करता है, उतना पाप बिना छने जल का संग्रह (उपयोग) करने वाला एक दिन में कर लेता है।
जैन संस्कृति में जैनाचार के लिए आवश्यक अहिंसा व्रत के परिपालन एवं जीवदया की भावना से जल छानने की क्रिया को श्रावक का अनिवार्य चिह्न माना गया है। छने हुए जल की मर्यादा एक मुहूर्त, गर्म जल की मर्यादा छः घण्टा तथा उबले हुए जल की मर्यादा दिन-रात तक मानी गई है। ६
(ड.) रात्रिभोजनत्याग - वेदों में रात्रि भोजन विषयक कोई सीधा उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु पश्चाद्वर्ती साहित्य के कतिपय उल्लेखों से पता चलता है कि प्राचीन काल में वैदिक परंपरा में भी रात्रि भोजनत्याग की व्यवथा थी । अनेकत्र महाभारत के नाम से प्राप्त एक उल्लेख में नरक के जिन चार द्वारों का कथन किया गया है, उनमें एक रात्रि भोजन भी माना गया है। यथा -
‘नरकद्वाराणि चत्वारि प्रथमं रात्रिभोजनम्। परस्त्रीगमनं चैव सन्धानानन्तकापिकम्॥८७
एक अन्य श्लोक में महर्षि मार्कण्डेय के अनुसार रात्रि में जल पीने को रुधिरपान के समान तथा अन्नभक्षण को मांसभक्षण के समान कहा गया है
‘अस्तंगते दिवानाथे आपः रुधिरमुच्यते ।
अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा ।। ८८
कतिपय वैषम्य
१. मधुत्याग - मधु (शहद) यद्यपि फूलों से संचित उनका रस है किन्तु उसमें मधुमक्खियों का मृत शरीर, उनके अण्डे एवं भ्रूणों का मिश्रण पाया जाता है। मधुमक्खियों का मल-मूत्र एवं लार का भी मिश्रण रहता है। अतएव जैनाचार में मुध को मांस एवं मदिरा के समान ही त्याज्य माना गया है। इसकी त्याज्यता का सभी श्रावकाचारों में कथन पाया जाता है। योगसार में कहा है'बहुजीवप्रधातोत्थं बहुजीवोद्भावास्पदम्।
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असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्जयेत्॥८९
अर्थात् संयम की रक्षा करने वालों को बहुजीवघात से उत्पन्न तथा बहु जीवों की उत्पत्ति स्थान शहद का मन, वचन एवं काय तीनों से त्याग कर देना चाहिए। इसके त्याग को सभी श्रावकाचारों में श्रावक के अष्ट मूलगुणों में एक मूल गुण माना गया है।