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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012
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वैदिक परम्परा में मधु (शहद) को त्याज्य न मानकर प्रायः सेव्य माना गया है। २. पंच उदुम्बर फल - जो फल वृक्ष के काष्ठ को भेदकर फलते हैं, उन्हें उदुम्बर फल कहा गया है। ये पाँच हैं - बड़, पीपल, ऊमर (गूलर), कठूमर (अंजीर) और प्लक्ष (पाकर)। इनका क्षीरफल के नाम से वैदिक परम्परा में उल्लेख पाया जाता है। कहीं-कहीं पाकर (प्लक्ष) के स्थान पर महुआ (मधूक) का भी कथन है। वैदिक परम्परा में इन फलों की त्याज्यता का कथन नहीं है, किन्तु जैन परम्परा में इन फलों को त्याज्य माना गया है। अनेक आचार्य एवं विद्वान् श्रावकाचार लेखकों ने पञ्चाणुव्रत के स्थानपर अष्ट मूलगुणों में पंच उदुम्बर फलों के त्याग को समाविष्ट किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है -
'योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोध पिप्पलफलानि।
त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा।।९३ अर्थात् उदुम्बरयुग्म - ऊमर, कठूमर, पाकर, बड़ एवं पीपल के फल त्रस जीवों की योनि या उत्पत्ति स्थान है। इस कारण इनके भक्षण में त्रस जीवों की हिंसा होती है। निष्कर्ष (आचारगत) -
__उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वैदिक आचार और जैन आचार में गृहस्थ के लिए कहे गये कतिपय सामान्य नियमों में स्थूल रूप से समानता है। हाँ, कुछ विषयों में असमानता भी है। यदि दोनों संस्कृतियों के आचारगत समानता के पक्ष को उजागर किया जाये तो सौमनस्य बनेगा तथा इससे अपने- अपने धर्म के पालन में अनुकूलता का अनुभव भी होगा। संदर्भ : १. यजुर्वेद, माध्यन्दिन संहिता, ७/१४ २. शतपथ ब्राह्मण, २/१२/७ ३. ऐतरेय ब्राह्मण, ६/२७
४. प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता, पृ. २७९ ५. अष्टाध्यायी, २/४/ ९
६ .अनेकान्त' त्रैमासिकी शोध पत्रिका अक्टूबर-दिसम्बर २००२ अंक ५५/४ में प्रकाशित प्रो. सत्यदेव मिश्र द्वारा लिखित 'स्याद्वाद' आलेख, पृ.१६ ७. 'चर् गत्यर्थः भक्षणे च।' - पाणिनीय धातुपाठ, भ्वादिगण। ८. ऋग्वेद १०/१३४/७
९. वही, ५/२१/१५ १०. मनुस्मृति, २/१८ ११. जैन धर्म और दर्शन, पृ. २४९ १२. सागारधर्मामृत, ७/३५, १३. विदुरनीति, ३/४२ की टीका १४. ऋग्वेद, १/१६४/३९ १५. मनुस्मृति, ४/१०८
१६. ऋग्वेद, ५/६४/३ १७. वही, ८/१८/१३
१८. यजुर्वेद, १२/१३ १९. अथर्ववेद, १/८/७
२०. वही, ३/१०/१ २१. तत्त्वार्थसूत्र, ७/१३
२२. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५३ २३. सागारधर्मामृत, २/८२
२४. ज्ञानार्णव, ८/२० २५. मनुस्मृति, ५/१९
२६. ऋग्वेद, २/१२/१५ २७. वही, १/१६७/७
२८. वही, ४/१०४/१२ २९. वही, १/६३/३ ३०. 'सत्यमर्थमाययति प्रत्यायति गमयति सत्यम्।' १/४/१३ पर ब्रह्ममुनिकृत टीका। ३१. निरुक्त, ३/१३
३२. सर्वार्थसिद्धि, ९/१६