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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012
मनुस्मृति में आचार शब्द को सदाचार का द्योतक मानते हुए कहा गया है कि जिस देश में जो आचार परम्परागत है, उनका वह आचार सदाचार कहलाता हैतस्मिन् देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः। वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्चते ॥
जैन परम्परा में भी आचार को सदाचार के अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया है तथा आचार एवं विचार को अन्योन्याश्रित मानकर आचार के मूल में अहिंसा और विचार के मूल में अनेकान्त को रखा गया है। अन्य भारतीय परंपराओं की तरह जैन परंपरा में भी विचार को दर्शन कहा गया है और दोनों को परस्पर पूरक मानकर दर्शन (विचार) रहित धर्म (आचरण) को अन्धा तथा आचार रहित विचार की पंगु कहा गया है।" पं. आशाधर जी ने सागार धर्मामृत में स्पष्ट रूप से कहा है कि अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शन आदि में जो प्रयत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं । १२
आचार का महत्त्व :
वैदिक परंपरा में आचार के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए स्पष्ट घोषणा की गई है कि आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते हैं -
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'आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः । १३
जो आचार नहीं समझता है, वैदिक ऋचा उसका क्या कल्याण कर सकती है- ' यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ।१४
आचार ही परम धर्म है - 'आचारः परमो धर्मः । १५
आचार के प्रमुख तत्त्व :
आचारवान् व्यक्ति के लिए वैदिक परंपरा में सद्गृहस्थ और जैन परम्परा में श्रावक या उपासक शब्द का प्रायः प्रयोग किया गया है। आचार के प्रमुख तत्त्वों में दोनों ही परम्पराओं में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (सर्वसुखकामना) जैसे व्रतों को प्रतिष्ठा मिली है, भले ही दोनों परम्पराओं में व्यावहारिक रूप से पर्याप्त भेद दृष्टिगोचर होता हो एवं शास्त्रीय विवेचना में भी अन्तर हो । व्यसनों के त्याग एवं दान को भी एक सद्गृहस्थ के लिए दोनों परम्परायें आवश्यक मानती हैं। (क) पञ्चव्रत पालन प्रवृत्ति एवं निवृत्तिरूप व्रत पाँच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ।
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१. अहिंसा - किसी प्राणी को मन, वचन, कर्म से पीड़ा न देना अहिंसा है। वेदों में अहिंसा या हिंसाविरति अनेक उल्लेख मिलते हैं। जो व्यक्ति अहिंसा या हिंसाविरति को आचरण में लाता है, वह अहिंसक कहलाता है । कतिपय उल्लेख द्रष्टव्य है -
'यून्नूनमश्यां गतिं मित्रस्य पापां पथा ।
अस्य प्रियस्य शर्मण्यहिंसानस्य सश्चिरे । १६
अहिंसक प्रिय मित्र की शरण में रहकर श्रेष्ठ जीवन पाते हैं। मैं भी अहिंसक मित्र के
मार्ग पर चलूँ। जीवन में कभी भी हिंसक व्यक्ति के मार्ग पर न चलूँ।
'यो नः कश्चिद् रिरिक्षति रक्षस्त्वेन मर्त्यः। स्वै स्व एवै रिरिषीष्टयुर्जनः। १७