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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 ‘ब्राह्मणश्रमणम्' उदाहरण इस तथ्य का अकाट्य निदर्शन है। दोनों ही संस्कृतियों में आचार, विचार एवं व्यवहारगत कतिपय समानतायें तथा कतिपय भिन्नता दृष्टिगोचर होती हैं। १९२२ ई. में सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ डॉ. आर. डी. बनर्जी ने मोहनजोदड़ों में तथा रायबहादुर दयाराम साहनी ने हड़प्पा में जो अवशेष प्राप्त किये थे, इस आधार पर जैन संस्कृति भी प्रागैतिहासिक सिद्ध होती है। क्योंकि वहां प्राप्त मुद्राओं पर 'जिन इस्सर' (जिनेश्वर) पढ़ा गया है तथा उन पर
अंकित आकृति नग्न योगी की स्वीकार की गई है। वेदों में उल्लिखित शिश्नदेव, दस्यु, दास, पणि कदाचित् सिन्धुघाटी के मूल निवासी थे तथा इनकी आचार, विचार एवं व्यवहार की पद्धति कथंचित् वैदिक संस्कृति से भिन्न थे। प्रो.सत्यदेव मिश्र ने लिखा है कि दोनों (वैदिक
और जैन) भारत के सनातन और जीवन्त धर्म हैं और दोनों में देशकाल की इयत्ता के अतिक्रमण का सामर्थ्य है। वे अन्यत्र लिखते हैं- ‘सत्यान्वेषण भारतीय दर्शन का प्रमुख वैशिष्ट्य है।. समन्वयवादी जैन चिंतकों ने सत्य को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त मानकर द्रव्य तथा पर्याय दोनों की परमार्थ सत्यता का उद्घोष किया है तथा स्वसिद्धान्त को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिष्ठित किया है।
___ सर्वप्रथम दोनों संस्कृतियों के आचार एवं व्यवहारगत साम्य पर विचार करना अभीष्ट प्रतीत होता है, ताकि यह समझा जा सके कि एक स्थान पर फलने-फूलने वाली दो संस्कृतियाँ कभी भी सहिष्णुता के बिना नहीं रह सकती हैं। आचार का अर्थ :
आचार शब्द आ उपसर्ग पूर्वक चर् धातु से धञ् प्रत्यय का निष्पन्न रूप है। कोश के अनुसार आचरण, व्यवहार, चालचलन, कर्तव्य आदि आचार शब्द के अर्थ हैं। आचर्यते यः स आचारः' व्युत्पत्ति के अनुसार प्रत्येक की जाने वाली क्रिया को आचार् कहा जा सकता है किन्तु शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार मानव के व्यवहार की उत्कृष्टता का नाम आचार है। प्राणी मात्र में आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन की समानता होने पर भी जो तत्त्व मानव को अन्य प्राणियों से उत्कृष्ट सिद्ध करता है, उसका नाम आचार है।
___ आचार शब्द में प्रयुक्त चर् धातु व्याकरण में दो अर्थों में प्रयुक्त होती है- गति और भक्षण। इन दोनों अर्थों में जो गति अर्थ है उसके गमन, ज्ञान और प्राप्ति ये तीन अर्थ होते हैं। फलतः आचार का तात्त्विक अर्थ हुआ जो खाने के लिए गति करता है वह पशु है तथा जो ज्ञान (मुक्ति प्राप्ति) के निमित्त भक्षण करता है, वह मनुष्य है।
वेद में चर् धातु का आचार के सम्बन्ध में प्रयोग करते हुए कहा गया है कि करणीय कर्म का विधान और अकरणीय कर्म का निषेध आचार का विषय है। यथा
'नकिर्देवा मिमीनसि नकिरा योपयामसि। मन्यश्रुत्यं चरामसि।।
अर्थात् न तो हम हिंसा करते हैं न फूट डालते हैं; हम तो मंत्र के अनुसार आचरण करते हैं।
'स्वस्ति पन्थानमनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताध्नता जानता सं गमेमहि। हम सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कल्याण के पथ का अनुसरण करें, बार-बार दानी, अहिंसक और ज्ञानी के साथ संगति करें।