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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर
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श्रुतसेवा संबन्धी उक्त रोमांचकारी एवं प्रमोदकारी तथ्यों का स्मरण कर उनमें वर्णित नैतिक आदर्शों को अपने जीवन में उतारना तथा समाजहित में उनका सर्वत्र प्रचार करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। इस महान् पर्व के उपलक्ष में यदि प्रत्येक ग्राम, नगर एवं शहर वासी प्रत्येक वर्ष में एक-एक जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपि का उद्धार एवं प्रकाशन कर जिनवाणी की सुरक्षा की प्रतिज्ञा करे, तो वह एक प्रेरक ऐतिहासिक कार्य होगा और उसी से श्रुतपंचमी पर्व के मनाये जाने की सार्थकता भी सिद्ध होगी । किमधिकम् ।
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संस्मरण -
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- बी-५/४०सी, सेक्टर- ३४ धवलगिरि, नोएडा २०१३०७ (उ.प्र.)
आत्म कल्याण और श्रद्धा -
मुझे याद आता है कि जब सबसे पहले सन् १९८५ में तीन लोगों को आचार्य श्री (विद्यासागर जी महाराज) ने कहा था कि जाओ धर्म की प्रभावना करने के लिए मेरे से दूर जाना पड़ेगा। हम बहुत रोये थे, बहुत मुश्किल में पड़े थे। मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि मैंने जहां अपना माथा टेका था, उस जगह से अब हमें अपना माथा उठाने की आवश्यकता पड़ेगी। लेकिन आज आज्ञा सुना दी गई धर्म प्रभावना के लिए। मैंने इन्कार किया अपने जीवन में पहली बार । जहाँ श्रद्धा होती है, वहां इन्कार करने का अधिकार नहीं होता, वहां स्वीकार भर किया जाता है। इन्कार करना पड़ा लेकिन इन्कार भी ऐसा नहीं किया। मैंने कहा कि मैंने तो सोचा भी नहीं कि आपसे दूर जाना पड़ेगा और आप ही मुझे अपने से दूर कर रहे हैं।
उस समय आचार्य श्री ने एक बात कही थी। उन्होंने कहा था कि मैं कहाँ तुम्हें अपने से दूर भेज रहा हूँ। जो शिष्य मेरी आज्ञा मानता है, वह मेरे से दूर रहकर भी मेरे बहुत निकट है और जो मेरी आज्ञा नहीं मानता है, वह मेरे निकट रहकर भी बहुत दूर है। यह तो श्रद्धा के सम्बन्धों की बात है।
(मुनिश्री क्षमासागर महाराज का प्रवचन)