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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर __आचार्य वीरसेन के अनुसार वास्तु-विद्या की दृष्टि से जिनगृहादि भवन की सुरक्षा हेतु उसके लिये चहार-दीवारी बनवाना तथा मुख्य द्वार पर तोरण एवं वन्दनवार की सज्जा को शुभकारक माना जाता है। धवला-टीका में लिखा है- “जिणगिहादीणं रक्खणट्ठप्पासेसु ठविदं ओलित्तीओ पागार णाम" अर्थात् जिनमंदिर आदि भवनों की रक्षा के लिए उसके चारों ओर जो परिक्रमा बनाई जाती है, उसे प्राकार अथवा परकोटा कहते हैं। तथा"बंदणमालवंदणटुं पुरदो दु ठविदरुक्खविसेसो तोरणां णाम" अर्थात् बन्दनवार बांधने के लिये मुख्य द्वार के दोनों ओर जो वृक्ष-विशेष लगाये जाते हैं, उन्हें तोरण कहते हैं। - इसी प्रकार वास्तु-विद्या का पर्यावरण से संबन्ध, मानव-जीवन पर उसके शुभाशुभ का प्रभाव आदि की भी प्रासंगिक चर्चाएँ की गई हैं।
वर्तमान काल में विविध कारणों से विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही है। उनके मूल कारण स्वास्थ्य-विरुद्ध खान-पान, लोभ-लालच की बढ़ती प्रवृत्ति एवं समन्वय-वृत्ति का अभाव आदि बतलाए जा रहे हैं। दूरदृष्टि-संपन्न आचार्य वीरसेन ने क्रमशः बदलते सामाजिक परिवेश के आधार पर दुःखद-भविष्य की कल्पना कर सच्चा नागरिक बनने के लिये निम्न छह सूत्र निर्धारित किये थे
जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सए। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई।
धवला-टीका १/९९ अर्थात् मानव को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक (सावधान होकर) गमन करे, सावधानी पूर्वक किसी स्थल पर बैठे, सावधानी पूर्वक ठहरे, किसी के यहां सजग होकर सोवे, सावधानी पूर्वक भोजन करे और सावधानी पूर्वक वार्तालाप करे। इससे विविध पापों अर्थात् कर्मों अथवा वंचनाओं से बचा जा सकता है।
धवला-टीका की यह विशेषता है कि उसमें लुप्त अथवा विस्मृत पूर्व-साहित्य तथा द्वादशांग-वाणी का संक्षिप्त परिचय भी प्रस्तुत किया गया है, जिसके आधार पर सि. च. आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में विस्तृत वर्णन किया है।
धवला-टीका के वेदना-प्रत्यय-विधान के ९०वें सूत्र में कर्म-प्रत्ययों में "माय" शब्द का प्रयोग किया गया है। उसका अर्थ टीकाकार (वीरसेन) ने 'मेय' अर्थात् प्रस्थ आदि मान-वाचक किया है। यह 'मेय' का 'माय' कैसे हो गया? उसके उत्तर टीकाकार ने “ए ए छच्च समाणा.............” आदि गाथा उद्धृत करते हुए कहा है कि- “अनेन सूत्रेण प्राकृते एकारस्य अकार-विधानात्।" इस संदर्भ पर विचार करने से प्रतीत होता है कि टीकाकार को प्राकृत-भाषा संबन्धी कोई गाथाबद्ध व्याकरण-ग्रन्थ भी उपलब्ध था जो वर्तमान में अनुपलब्ध है।
जहाँ तक मुझे जानकारी है, धवला-टीका का सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक दृष्टि से तो पर्याप्त अध्ययन किया जा चुका है किन्तु भाषात्मक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं लोक-चित्रण की दृष्टि से उसका अध्ययन नहीं हो सका है। अतः सर्वागीणता की दृष्टि से तथा टीका को सार्वजनीन बनाने की दृष्टि से भी उक्त तथ्यों का अध्ययन एवं शोध-नितान्त आवश्यक है।