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सम्पादकीय
प्राचीन काल में भारत के सभी धार्मिक सम्प्रदाय दो भागों में विभक्त थे - वैदिक और श्रमण। श्रमण सम्प्रदाय भी कालान्तर में दो भागों में विभक्त हो गयाजैन और बौद्ध। वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में जैन संस्कृति की अनेक बातें किंचित् परिवर्तित रूप में दृष्टिगत होती है। फलतः कहा जा सकता है कि जैन साहित्य जैनेतर वैदिक एवं बौद्ध साहित्य से असम्बद्ध नहीं है। सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् डॉ. एम. विन्टरनित्ज ने लिखा है -
"In the sacred texts of the Jainas, a great part of the asectic litrature of ancient India is embodies, which has also left, its traces in Buddhist literature as well in the Epics and Puranas. Jaina literature is therefore closely conected with the other branches of Post-Vedic religions literature.
(Jainas in the literature page 6-7) जैन साहित्य में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनकी तुलना वैदिक एवं बौद्ध साहित्य से की जा सकती है। अनेक स्थलों पर शब्दसाम्य एवं अर्थसाम्य दृष्टिगोचर होता है। अनेक वर्गों के लोग जब एक साथ रहते हैं तो यह स्वाभाविक ही है कि वे पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रभावित हुए हों। किन्तु यह बात असंदिग्ध रूप से नहीं कही जा सकती है कि किसने किससे ग्रहण किया है या किसने किसको प्रदान किया है ? क्योंकि कोई साहित्य पहले लिपिबद्ध हो जाने मात्र से वैचारिक रूप से प्राचीन हो, यह आवश्यक नहीं है।
एक समय था जब प्रत्येक विचारक अपने विचार की संस्थापना के लिए परानुमत विचार का खण्डन करता था। किन्तु अब यह पद्धति समाप्तप्राय है। अद्यावधि सहिष्णुता समाज का एक आवश्यक अंग बन गई है। भारतीय संस्कृति अनादिकाल से अनेक विचारों के अवदान से सतत प्रभावित होती रही है। अतः यह आवश्यक है कि इसके वास्तविक मूल्यांकन के लिए जैन एवं जैनेतर विचारकों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये।
वीर सेवा मन्दिर के पदाधिकारियों की भावना के अनुरूप श्रुतपंचमी महोत्सव के अवसर पर विविध विचारों की तुलना को आधार बनाकर एक