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श्रुत-पंचमी-पर्व : श्रुत-साधना का प्रेरक-स्रोत एवं परंपरा को निश्चय ही उज्जवल बना दिया है। इस प्रकार दैवी-प्रतिभा सम्पन्न वीरसेन-स्वामी के प्रति महाप्रज्ञावान् शिष्य-आचार्य जिनसेन की विचारोत्तेजक अभिव्यक्ति उनके विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने संबन्धी हमारी जिज्ञासा को भी व्याकुल बना देती है, किन्तु विवश हैं हम, कल्पना-सागर में गोता लगाने के लिये कि उनका (वीरसेन स्वामी का) बचपन कैसा रहा होगा? माता-पिता कैसे रहे होंगे और उनके दीक्षित होते समय उनकी माता ने पुत्र-विछोह के कारण कितना करुण-क्रन्दन किया होगा और आँसूओं के कितने पनारे बहाए होंगे?
धवला-टीका की अंतिम प्रशस्ति इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें वीरसेन स्वामी ने स्वयं अपनी गुरु-परंपरा, अपने समकालीन नरेशों तथा धवला-टीका-समाप्ति के काल का सांकेतिक परिचय प्रस्तुत किया है। उन्होंने सर्वप्रथम अपने गुरु एलाचार्य का विनम्र स्मरण करते हुए कहा कि- “एलाचार्य गुरु के महाप्रसाद से प्रस्तुत सिद्धान्त-ग्रन्थ (धवला-टीका) की रचना की गई है"। तत्पश्चात् उन्होंने अपने पंचस्तूपान्वय एवं अपने गुरु आचार्य आर्यनन्दी तथा दादागुरु-आचार्य चन्द्रसेन का स्मरण करते हुए बताया है के प्रस्तुत धवला-टीका सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण-शास्त्र में निपुण वीरसेन-भट्टारक ने लिखी है। तत्पश्चात् उन्होंने धवला-टीका की समाप्ति के समय का भी उल्लेख किया है।
किन्तु दुर्भाग्य से समय-सूचक उस अंश के अनेक अक्षरों का क्षरण हो जाने के कारण, उसका सवंत् तथा वर्ष-निर्देश और नक्षत्रों आदि के उल्लेखों का अध्ययन कर पाना कठिन हो गया था। फिर भी, छक्खंडागम सुत्त-धवला-टीका के प्रधान संपादक प्रो. डॉ. हीरालाल जैन ने एक विश्वस्थ ज्योतिषी की सहायता से ज्योतिष-गणना के आधार पर उस पाठ का संशोधन कराने का प्रयत्न किया था। तदनुसार वह काल-निर्देश शंक सं.७३८ कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी सिद्ध होता है (अर्थात् ८ अक्टूबर सन् ८१६ ई.)। __वह जयत्तुंगदेव-नरेश का शासन-काल था, जो इतिहासकारों की गवेषणा के अनुसार राष्ट्रकूट-नरेश गोविन्द-तृतीय का अपरनाम था और जिसका काल ताम्रपट-लेखों के अनुसार ७९६ से ८१६ के मध्य सिद्ध होता है। अतः यही काल धवला-टीका का रचनाकाल भी सिद्ध होता है। ___ मूल वर्ण्य-विषय की दृष्टि से तो धवला-टीका का अपना ऐतिहासिक महत्व है, लोक-चित्रण की दृष्टि से भी उसका विशेष महत्व है। मानव-जीवन में वास्तु-विद्या का विशेष महत्व है। उसके सुख-दुःख, पारिवारिक सौहार्द, सामाजिक सौमनस्य, असफलता एवं रुग्णता-निरोगता आदि का सीधा संबन्ध वास्तु-विद्या से बतलाया जाता है। भवन-निर्माण के समय वास्तु-विद्या के नियमों का ध्यान रखना प्रसन्नता, प्रगति एवं स्वस्थ दीर्घायुष्य की दृष्टि से उसे आवश्यक माना गया है।
आचार्य वीरसेन ने वास्तु-विद्या की परिभाषा में बतलाया है कि- “वास्तु-विद्या उस स्थल का (जिस पर भवन-निर्माण करना है-) तथा वास्तु-निर्माण-विधि आदि से संबन्धित विधियों के शुभाशुभ के कारणों का वर्णन करती है।शुभाशुभ का तथा भूमि-शोधन का विचार किये बिना ही भवन का निर्माण जीवन में अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।