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श्रुत-पंचमी-पर्व : श्रुत-साधना का प्रेरक-स्रोत युग बदले, परिस्थितयाँ बदली। हिन्दी का युग आ गया। उक्त टीकाओं की ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों को बड़ी कठिनाइयों से उपलब्ध किया गया। उनके नागरीकरण संबन्धी कार्यों में स्वनामधन्य पं. गजपति उपाध्ये, विदुषी पं. लक्ष्मीबाई, पं. सीताराम शास्त्री एवं पं. लोकनाथ शास्त्री को लगातार लगभग १५-२० वर्षों तक एकान्तवास में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा, उनका अनुभव कोई भुक्तभोगी ही कर सकता है। इन श्रुताराधकों का यह परिश्रम भी किसी टीकाकार के परिश्रम से कम सराहनीय नहीं क्योंकि इन्होंने जीर्ण-शीर्ण प्राच्य पाण्डुलिपियों में उपलब्ध उस दुरूह टीका-साहित्य के हिन्दी-अनुवाद के लिये मूल आधार तैयार किया था।
इस गंभीर-कार्य के लिये सन् १९३४ के आसपास जैनधर्म-दर्शन, कर्म-सिद्धान्त एवं भाषा-विशेषज्ञ विद्वानों का एक संवेदनशील-समूह सम्मुख आया, जिसमें प्रो. डॉ. हीरालाल जैन (अमरावती), प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये (कोल्हापुर), पं. देवकीनन्दन शास्त्री (कारंजा), वाराणसी के पं. फूलचन्द जी सि. शा., पं. कैलाशचन्द्र जी सि. शा., पं. लालबहादुर जी शास्त्री एवं व्यावर-(राजस्थान) के पं. हीरालाल जी शास्त्री तथा सिवनी के पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर, ने साधनाभावों के बीच भी समर्पित-भाव से जीवन पर्यन्त धवला, महाधवला एवं जयधवला का प्रामाणिक हिन्दी-अनुवाद कर तथा आवश्यक समीक्षाएँ एवं टिप्पणियां लिखकर उसे सार्वजनीन बनाया।
इस भीमकाय सारस्वत-कार्य के प्रकाशन का भारवहन किया, विदिशा के दानवीर श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द जी परिवार एवं अमरावती के सिंघई पन्नालाल जी परिवार ने।
अथ से लेकर इति तक यह समग्र सारस्वत-कार्य सन् १९१४-१५ से लेकर लगभग सन् १९७५-७६ तक लगभग ६० वर्षों तक चला और कुल ३८ खण्डों अर्थात् लगभग २०,००० पृष्ठों में प्रकाशित हुआ। इन समस्त श्रुत-संरक्षकों, उद्धारकों एवं जिनवाणी-सेवकों ने समर्पित-भाव से अपने यौवन की समस्त ऊर्जाशक्ति इस महान् कार्य में समर्पित कर दी। हम लोग उनके ऋण से उऋण तो कभी हो ही नहीं सकते। किन्तु श्रुतपंचमी के इस पावन-पर्व पर उन्हें सविनय प्रणाम कर यह प्रतिज्ञा अवश्य कर सकते हैं कि प्रतिदिन इन आगम-ग्रंथों का स्वाध याय कर तथा उन्हें खरीदकर अगली पीढ़ी को सुसंस्कृत बनाने हेतु अपने भवन में एक छोटा सा ग्रंथागार अवश्य बनावेंगे।
इधर कुछ संस्थाओं की यह भी भावना हुई है कि उक्त टीका-साहित्य का कन्नड़ एवं अंग्रेजी अनुवाद करा कर इक्कीसवीं सदी को भी सार्थक बनाया जाय, जिससे अहिन्दी भाषा-भाषी देश-विदेश के जिज्ञासु विद्वानों को भी उनके अध्ययन का सुअवसर मिल सके। इस दृष्टि से दि. जैन मठ श्रवणवेलगोला, सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री फाउन्डेशन रुड़की तथा श्री गणेशवर्णी दि. जैन संस्थान वाराणसी के प्रयत्न सराहनीय हैं, जिनके संकल्प साकार भी होने लगे हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में भी यदि उनके अनुवाद कराये जा सकें तो या प्रसन्नता का विषय होगा।