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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 द्वैपायन का चालीसवें अध्ययन में उल्लेख है तथा नमि और पाराशर का ऋषिभाषित में नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता। एवं उत्तराध्ययन में नमि वैदेहि का उल्लेख प्रत्येक बुद्ध के रूप में हुआ है, जिन्होंने अपने सभी संबन्धियों एवं मिथिला नगरी को छोड़कर अभिनिष्क्रमण किया।
सूत्रकृतांग में उल्लेखित ऋषि मतों में कुछ उल्लेख महाभारत में भी है। असित देवल, द्वैपायन तथा पाराशर का पराशर्यश्च नाम से उल्लेख मिलता है। वहां वे महाराज युधिष्ठिर की सभा में बैठते थे तथा महाभारत में ही अन्य प्रसंग में पाराशर व पराशर्य नाम से उल्लेख मिलता है। जबकि निमि (नमि) का उल्लेख अतिबलशाली, महारथी, गुणशाली राजा के रूप में हुआ है।
इसके अतिरिक्त भी आगमों में उत्पत्ति-निष्पत्तिवाद, त्र्यणुकवाद, स्फोटवाद, द्वैक्रियवाद, दयमान-अदत्तवाद, क्रियावाद (आचार), निर्वाणवाद, शून्यवाद, वायु जीववाद, एवंभूतवेदनावाद, सुखदुःखउपदर्शनवाद, स्वभाववाद, दुःखवाद, एकान्तबालवाद, जीव-जीवात्मन्यवाद, केवली-यक्षाविष्टवाद, पंचास्तिकायवादनिराकरणवाद, सन्ततिवाद, मनोजीववाद, जीव अस्तित्ववाद, कर्म अस्तित्त्ववाद, जीव पुनर्जन्मवाद, बंध-मोक्ष अस्तित्वाद, देव अस्तित्ववाद, नारक अस्तित्वाद, पुण्य-पाप अस्तित्ववाद, परलोक अस्तित्ववाद, निर्वाण अस्तित्ववाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, अफलवाद, ईश्वरकारणिक, आधाकर्मकृतवाद, कर्मोपचय सिद्धान्त, अवतारवाद, वेदवादी ब्राह्मण, हस्तितापस, सिद्धवाद, पापित्यीय श्रमण आदि का उल्लेख मिलता है। इन सभी का क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद तथा विनयवाद में समावेश हो जाता है। सृष्टि उत्पत्ति संबन्धी विभिन्न मतों- अण्डकृत सृष्टि, देव एवं ब्रह्माकृत सृष्टि, ईश्वरकृत (ईश्वरकारणिक) सृष्टि, प्रधानकृत सृष्टि, प्रजापतिकृत सृष्टि का उल्लेख मिलता है।
इनके अतिरिक्त जैन आगम तथा उसके ग्रंथ में पांच प्रकार के श्रमणों का उल्लेख करते हैं, जैसे- १. निर्ग्रन्थ, २. तापस, ३. शाक्य, ४. गेरुय (परिव्राजक), ५. आजीविक। इनके प्रकारान्तर से अनेक भेद मिलते हैं और भी स्वतीर्थिक दर्शन भ्रष्ट सात निह्नवों-१. बहुतर, २. जीवप्रादेशिक, ३. अवर्तिक, ४. सामुच्छेदिक, ५. द्विक्रिया, ६. त्रैराशिक, ७. अबद्धिक का उल्लेख मिलता है।
महावीर के समकालीन बौद्ध साहित्य में दीघनिकाय के अंतर्गत ६२ मतवादों का उल्लेख हुआ है, जैसे आदि संबन्धी १८ मत- १. शाश्वतवाद, २. नित्यता-अनित्यतावाद, ३. सान्त-अनन्ततावाद, ४. अमराविक्षेपवाद, ५. अकारकवाद। अन्त सम्बन्धी ४४ मत - १. मरणान्तर होश वाला आत्मा, २. मरणान्तर न होश वाला आत्मा, ३. मरणान्तर बेहोश आत्मा, ४. आत्मा का उच्छेद, ५. इसी जन्म में निर्वाण। वहां इन दस वादों के विभिन्न कारणों का उल्लेख कर ६२ भेद किये गए हैं। इस प्रकार ६०० ई.पू. के वादों की एक लम्बी श्रृंखला प्राप्त होती है। जिनके अनेक भेद प्रभेद भी मिलते हैं, यहाँ उनका नामोल्लेख मात्र किया गया
छठी सदी ई.पू. का युग क्रांतिकारी रचनात्मक सुधारवादी प्रवृत्तियों के लिए न केवल भारतवर्ष में बल्कि संपूर्ण विश्व में महत्त्वपूर्ण काल माना गया है। यह जागरण एवं जिज्ञासा