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भारतीय कला में जैन दर्शन व कला का संगम ____ कपड़े पर सर्वप्रथम चित्र पाटन के भण्डार का पंचतीर्थी पट उल्लेखनीय है। अहमदाबाद में वसन्त-विलास (१६ वीं शती) का पट चित्र है।
कागज पर बने चित्र प्रायः पुस्तकों में है। इसकी सबसे पुरानी प्रति जौनपुर के कल्प सूत्र की है। यह ग्रन्थ सुनहरी अक्षरों में लिखा है।
ताडपत्रों पर बने प्रायः बाई और एक तिहाई (१/३) भाग पर दृष्टान्त के रुप में अभिलेखित है। तथा दो तिहाई (२/३) पर सुन्दर हस्त लिपि में ग्रन्थकार ने लिखा हुआ है। कई में बीचों बीच अगल-बगल में लिखकर बीच में चित्र बने है। जैनशैली की चित्रकला पर मुनि श्री कान्तिसागर जी ने विशेष प्रकाश डाला है। दृष्टान्त चित्रों को कोई नियमों में नहीं बनाया। १०-१२ वी शती के चित्र सर्वाधिक सुरक्षित है। इनमें निशीथ चूर्णिका, कथा सरित सागार, अंगसूत्र, लघुवृति, नेमिनाथ चरित्र, त्रिषष्ठिशाला का पुरुष चरित्र, संग्रहणीय सूत्र, दशवैकालिक, श्रावण प्रतिक्रमण चूर्णी, आदि सचित्र पोथियों में इस शैली का कलात्मक रुप दिखाई देता है। कुछ चित्रित ग्रन्थ मिल गए किन्तु कुछ ग्रन्थ भण्डारों व व्यक्तिगत संग्रह में है जो प्रकाश में नहीं आ पाए। __इस शैली के चित्रों में प्रतिकात्मकता पूर्ण बनी आकृतियाँ ही मुख्य विशेषताएं हैं। चैत्य, चैत्यालय, द्विमूर्तिका, त्रिमूत्रि का, सर्वतोभंजिका, चैत्यवृक्ष, त्रिरन्त, अष्टमंगल, अष्टप्रतिहार्य, सोलह स्वप्न, नवनिधि, नवग्रह, श्रीवत्स, मकरमुख, शार्दुल की चक, गंगा, यमुना आदि तथा कुछ तीर्थकरों को भी विभिन्न वर्ण, वृक्ष के प्रतीक रुप में भी दर्शाया गया है। जैसे
महावीर तीर्थकर - पीलावर्ण, केसरी सिंह - दीक्षातरू पार्श्वनाथ तीर्थकर - नीलवर्ण, सर्प - अशोक वृक्ष नेमिनाथ तीर्थकर - कालावर्ण, शंख
बेधसवृक्ष ऋषभनाथ तीर्थकर - स्वर्णिमवर्ण, वृष - कदली वृक्ष
जैन शैली के चित्रों में कुछ ऐसी विशेषताएँ थी, जो प्रायः सभी चित्रों में पाई जाती है। जैसेइस शैली के चित्रों का फलक तथा पत्र पर अंकित होना। यद्यपि जैन शैली ७ वीं सदी में विकसित हुई किन्तु १००० ई० के बाद तेजी से विकास हुआ। नेत्रों के चित्रण की उनकी
अपनी विशेषताएँ हैं, और वे उठे हुए तथा बाहर को उभरे हुए है। कानों तक उनकी लम्बाई है। एक चश्म चेहरे में दूसरी आँख को अलग से बनाया जाना, प्रकृति को कम चित्रित करना, रेखाएं महीन नीब से बनाई दिखने वाली, आकृतियों का वक्षस्थल उभराव, कटि क्षीण आदि विशेषताएं इन चित्रों में दिखाई देती है। जैन धर्म से कला का प्रसार तो हुआ है, किन्तु इस शैली में कला तत्वों का उचित उपयोग नहीं हो पाया। इसका कारण ज्यादा मात्रा में चित्र बनाना या अकुशल कलाकारों द्वारा चित्र बनाना रहा होगा। ___ १२ वीं शती में जैन कला में शिथिलता आ गई थी। उत्तर मध्यकाल (१०००-१६०० ई.) वाचस्पति गैरोला के अनुसार इस युग में अधिकतर पुस्तकों के दृष्टान्त चित्र निर्मित हुए। ऐसी सचित्र पोथियों का निर्माण प्रायः बंगाल, बिहार और नेपाल में हुआ। इस युग की चित्रशैली के सम्बन्ध में रायकृष्ण दासजी का कथन है कि - इनमें लाल (सिंदूर, हिग्गुल, महावर) पीला