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समण सुत्तं में उद्धृत कर्म सूत्रों की उपादेयता से जानने के लिए नय, अनेकान्त (सापेक्षता) की जरूरत रहती है। जैन दर्शन में दो प्रकार के कर्म बतलाए गए हैं - द्रव्य कर्म और भाव कर्म। द्रव्य कर्म - आत्मा की प्रवृत्ति से आकष्ट कर्म पुद्गल एवं भाव कर्म - मूल आत्मा की प्रवृत्ति है। मूल रूप से कर्मों को आकर्षित करने वाला कर्म है - भाव कर्म। भाव कर्म के अनुसार ही द्रव्य कर्मों का बंध होता है और द्रव्य कर्म जब उदय अवस्था में आता है तो फिर भाव कर्म वैसे ही बनते हैं। हांलाकि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से इनमें परिवर्तन भी कर सकता है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि “समण सुत्तं" में उद्धृत कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित ये गाथाएं बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इससे व्यक्ति कर्म सिद्धान्त की अच्छी जानकारी प्राप्त कर सकता है। दर्शन जगत तथा व्यावहारिक जगत से संबंधित अनेक समस्याओं को समाहित भी कर सकता है। संदर्भ:
१. उत्तराध्ययनसूत्र, ३२.७ २. ठाणं, ४.६२८, ३. ठाणं, ४.६२९, ४. ठाणं, ४.६३०, ५. ठाणं, ४.६३१ ६. रविन्द्रनाथ मिश्र, जैन कर्म सिद्धान्त- उद्भव एवं विकास, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी,
१९९३, पृ. १७३ ७. जैन कर्म सिद्धान्त - उद्भव एवं विकास, पृ. १७६ ८. उपासकदशा, ७.२६ ९. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन दर्शन और अनेकान्त, आदर्श साहित्य संघ, दिल्ली, पृ. ११७
जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन, जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय,
लाडनूं (राजस्थान)