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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर ___अब यहाँ यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि उक्त श्रुतांश-राशि को सूत्र-शैली में ही क्यों लिपिबद्ध किया गया, भाष्य-शैली में क्यों नहीं? मेरी दृष्टि से उसके प्रमुख कारण निम्न प्रकार रहे थे -
१. समकालीन लेखनोपकरण-सामग्री सीमित, कष्टसाध्य एवं दुर्लभ थी और जो निर्दोष स्पष्ट लेखन-कार्य, समयसाध्य, धैर्यसाध्य, श्रमसाध्य, जटिल तथा एकाग्रता-सापेक्ष थी, तथा
२. उक्त दोनों भूतबलि एवं पुष्पदन्त-लेखकाचार्यों की वृद्धावस्था सन्निकट थी जबकि उन्होंने अपने आयुष्यकाल में ही उक्त श्रुतांश के प्रामाणिक निर्दोष लेखन-कार्य की समाप्ति को अनिवार्य समझा होगा, अन्यथा उसके लुप्त-विलुप्त हो जाने की उन्हें भी आशंका रही होगी।
संभवतः यही कारण रहा होगा कि उन्होंने उस श्रुतांश को गणित के फार्मूलों की पद्धति से अर्थात् अर्थगर्भित सूत्र-शैली में उसे लिपिबद्ध किया।
आचार्य भूतबलि एवं पुष्पदन्त-काल में जिज्ञासु भक्तगण प्रतिभा-संपन्न थे। अतः आगम-सूत्रों में अन्तर्गर्भित सैद्धान्तिक रहस्यों को वे सरलतापूर्वक समझ लेते थे। किन्तु आगामी विषम परिस्थितियों एवं नवीन पीढ़ियों की कठिनाईयों का ध्यान कर दूरदृष्टि-संपन्न परवर्ती पांच आचार्यों ने उन सूत्रों पर विस्तृत टीकाएँ लिखीं। ऐसे कृपालु आचार्यों में :१. आचार्य पद्मनन्दि ने षट्खण्डागम के आदि के तीन खण्डों पर १२००० गाथा-प्रमाण
"परिकर्म" नाम की टीका लिखी। तत्पश्चात् - २. आचार्य शामकुण्ड ने षटखं. तथा कसाय.(दोनों) पर १२००० गाथा-प्रमाण सं. प्रा.
एवं कन्नड मिश्रित “पद्धति" नाम की टीका लिखी। ३. आचार्य तुम्बुलुर ने भी षट्खं एवं कसाय.(दोनों) पर ८४००० गाथा-प्रमाण कन्नड
में "चूडामणि" नाम की टीका तथा महाबन्ध पर ७००० गाथा-प्रमाण “पंजिका"
टीका लिखी। ४. वृद्ध-तार्किक-सूर्य-विरुदधारी आचार्य समन्तभद्र ने-षट्खं. के प्रथम पांच खण्डों
पर ४८००० श्लोक प्रमाण मृदुल संस्कृत-भाषा में लिखी (संभवतः “जीवसिद्धि नामकी टीका) और जब उन्होंने कसाय. पर टीका लिखने की तैयारी की तब द्रव्यादि-शुद्धि के अभाव के कारण उनके एक सहधर्मी ने उन्हें रोक दिया (दे.
श्रुतावतार.-१७०) (द्रव्यादिशुद्धिकरण प्रयत्न-विरहात्प्रतिनिषिद्धम्) तत्पश्चात्५. आचार्य वप्पदेव ने महाबन्ध पर ८००५ गाथा-प्रमाण टीका तथा कसाय. पर ६००००
गाथा-प्रमाण टीका लिखी। इस प्रकार श्रुताराधक उक्त पद्मनन्दी आदि पंचाचार्यों ने लगभग छठवीं-सातवीं सदी तक क्रमशः कुल मिलाकर २३१००५ पद्य-प्रमाण समकालीन लोकप्रिय भाषाओं एवं शैलियों में विस्तृत टीकाएं लिखकर न केवल जैन-विद्या, अपितु, प्राच्य भारतीय-विद्या को भी गौरवान्वित कर उसे सुसमृद्ध बनाने का अथक प्रयत्न किया था। किन्तु दुर्भाग्य से किन्हीं अदृश्य कारणों से वह समग्र टीका-साहित्य लुप्त हो गया और इस कारण उसमें समाहित ज्ञान-विज्ञान एवं मनोविज्ञान का अपार भण्डार विस्मृत अथवा लुप्त-विलुप्त हो गया।