________________
श्रुत-पंचमी-पर्व : श्रुत-साधना का प्रेरक-स्रोत
- डॉ. राजाराम जैन पिछली लगभग दो सहस्राब्दियों से प्रत्येक वर्ष की ज्येष्ठ-शुक्ला-पंचमी का पुण्य-दिवस जैन-परम्परा में श्रुत-पंचमी-पर्व के रूप में विख्यात है। दूसरे शब्दों में यदि कहना चाहें, तो आगम-संरक्षक-दिवस अथवा जैनागम-साहित्य के इतिहास-लेखन का मंगलाचरण-पर्व भी कह सकते हैं। क्योंकि आज से कुछ अधिक लगभग २००० वर्ष पूर्व दो महामहिम कठोर तपस्वी आचार्यों - आचार्य भूतबली एवं पुष्पदंत ने आज ही के दिन छक्खंडागम-सुत्त नाम के आगम-ग्रन्थ के लेखक-कार्य को समाप्त किया था और उसकी आराधना-पूजा कर सर्वप्राणिहिताय-सर्वप्राणिसुखाय उसे लोकार्पित किया था। इस आदर्श-कार्य की सुखद-स्मृति को स्थायी बनाये रखने के लिए ही आचार्यों ने उस महान् ऐतिहासिक दिवस को श्रुतपंचमी-पर्व के नाम से घोषित किया था और उसी समय से समग्र जैन-जगत् मानव-मूल्यों के संदेश-वाहक उस महान् पर्व को विविध समारोहों पूर्वक मनाता चला आ रहा है। __कल्पना कीजिये उस समय की जब लेखनोपकरण-सामग्री तपजपदह डंजमतपंसद्ध का विकास नहीं हुआ था। आज तो हम आवश्यकता पड़ते ही दौड़कर बाजार से कागज, कॉपी, पेन, पेंसिल, कार्बन-पेपर आदि खरीदकर ले आते हैं और तीव्रगति से अपना लेखन-कार्य संपन्न करते रहते हैं। किन्तु उन वनवासी-आचार्यों के समय में तो इन सुकर-संसाधनों की कल्पना भी नहीं की जा सकी होगी। अतः उनके सम्मुख सचमुच ही लेखन-सामग्री संबन्धी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित रही होंगी। __नन्द-मौर्यकाल में लेखनोपकरण-सामग्री के रूप में केवल पत्थर एवं छैनी-हथौड़ी थे। उस समय पत्थरों पर छैनी-हथौड़ी से समकालीन लोकप्रिय जन-भाषा-प्राकृत में ब्राह्मी एवं खरोष्ठी-लिपि में राज्यादेशों या नैतिक-संदेशों को टंकित कराकर प्रचारित किया जाता था। यही स्थिति कलिंगाधिपति सम्राट खारवेलकालीन (ईसा-पूर्व दूसरी-सदी) भी थी। किन्तु इन कर्कश-संसाधनों का उपयोग तो सम्राट जैसे साधन-संपन्न लोग ही कर सकते थे। अपरिग्रही, महाव्रती एवं वनवासी केवल पिच्छी-कमण्डलु धारी जैनाचार्यों के लिये तो वह बिल्कुल संभव ही नहीं था।
अतः उसे सरल बनाने के लिये वानस्पतिक लेखनोपकरण-सामग्रियों का सहारा लिया गया, जिसमें भोजपत्र, मृदुल-काष्ठ-कुंचिका एवं वनस्पतियों के रंग आदि प्रमुख थे। यही सामग्री कुछ भक्त-श्रावकों द्वारा उक्त दोनों आचार्यों को उपलब्ध कराई गई होगी और उन्होंने भी उसी का उपयोग कर अपने गुरु वयोवृद्ध आचार्य धरसेन द्वारा कण्ठ-परंपरा से प्राप्त उस श्रुतांश को सूत्र-शैली में लिपिबद्ध किया होगा।