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आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार जैन प्रमाणमीमांसा
- विकास सिंह ११वीं शताब्दी के जैन दार्शनिक कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृत भाषा में जैन दर्शन की प्रमाण परम्परा को सुव्यवस्थित तथा सहज तरीके से प्रस्तुत करने हेतु प्रमाणमीमांसा' नामक प्रकरण ग्रंथ की रचना की। अथ प्रमाणमीमांसा (१.१.१) सूत्र से ग्रंथ का प्रारंभ करके हेमचन्द्र ने दूसरे सूत्र में सम्यगर्थनिर्णय को ही प्रमाण कहा है।
हेमचन्द्र ने पूर्व जैनाचार्यों द्वारा प्रमाण के लक्षण में स्वीकृत स्व पद को हटा दिया क्योंकि उनका मानना है कि ज्ञान तो स्वप्रकाशमान है, अतः उसे पृथक् शब्द से कहने से क्या प्रयोजन। अनधिगत या अपूर्व पदों को भी हेमचन्द्र ने अपने लक्षण में कोई स्थान नहीं दिया तब प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि धारावाहिक व स्मृति आदि ज्ञान जो अधिगतार्थक या पूर्वार्थक होने से अप्रमाण समझे जाते हैं। तब सम्यगर्थनिर्णयरूप लक्षण में अतिव्याप्ति हो जायेगी। इसका निराकरण हेमचन्द्र ने धारावाहिक तथा स्मृति ज्ञान में समत्व दिखाकर प्रामाण्य को स्वीकार करके किया है। प्रमाण्य का निश्चय स्वतः एवं परतः होता है। जैन मत में अभ्यासदशा में स्वतः तथा अनभ्यासदशा में परतः माना जाता है। आगम स्वतः प्रमाण हैं।
आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण के दो भेद प्रत्यक्ष तथा परोक्ष स्वीकार किये हैं। पूर्व जैनाचार्यो द्वारा स्वीकृत अन्य प्रमाणों को इन्हीं दो के भेद-प्रभेद में स्वीकार कर हेमचन्द्र ने उनके प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित की है। प्रत्यक्ष प्रमाण
प्रत्यक्ष शब्द प्रति तथा अक्ष इन दो शब्दों के संयोग से बना है। जैनदर्शन में अक्ष शब्द का अर्थ संपूर्ण अस्तिकाय तथा अनस्तिकाय द्रव्य, देश तथा काल इत्यादि में व्याप्त अर्थात् आत्मा किया गया है। अक्ष शब्द का अश्रुते (विषय) अर्थ में इन्द्रिय भी अपर आशय प्रतिपादित किया गया है। अतः इन्द्रियनिरपेक्ष तथा आत्माश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्ष है, इन्द्रियाश्रित ज्ञान परोक्ष है।
सूत्र संख्या १.१.१३ में प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए हेमचन्द्र ने विशदः प्रत्यक्षम् कहकर वैशद्य को ही प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। यह वैशद्य क्या है? इस शंका का समाधान करते हुए उन्होंने बतलाया है कि अन्य प्रमाण की अपेक्षा न रखने वाला सम्यगर्थनिर्णय संपन्न सर्वज्ञ का ज्ञान ही वैशद्य है। हेमचन्द्र ने अपने ग्रंथ आप्तनिश्चयालंकार में सर्वज्ञ को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो सब कुछ जानता हो, राग, द्वेष इत्यादि दोषों को जो जीत चुका हो, तीनों लोकों में पूज्य हो, जैसी जो वस्तु है उसे वैसा ही बताने वाला यथास्थितार्थवादी हो, वही परमेश्वर अर्हत् देव है। इस अर्हत को ही सर्वज्ञ कहा जाता है।१२