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भेद रत्नत्रय - अभेद रत्नत्रय तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार के परिप्रेक्ष्य में
- डॉ. आनंद कुमार जैन प्राणी मात्र के लिए साक्षात् मोक्ष का कारण रत्नत्रय है। भेद तथा अभेद इसके दो प्रकार हैं। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु द्वारा कहे गये जीवादि द्रव्यों, तत्त्वों एवं पदार्थादि को जानकर श्रद्धान करना एवं तदनुकूल आचरण करना भेद रत्नत्रय है, जिसे व्यवहार रत्नत्रय भी कहते हैं तथा उससे भिन्न पर-पदार्थों के चिन्तन को त्यागकर मात्र आत्म-स्वरूप का श्रद्धानकर, ज्ञानकर आत्मावलोकन, रत्नत्रय आत्मानुपालन करना अभेद रत्नत्रय है, जिसे निश्चय रत्नत्रय कहते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने सर्वप्रथम पंचास्तिकाय एवं समयसार, प्रवचनसार में रत्नत्रय के भेदाभेद रूप विभाजन का कथन किया है जिसपर परवर्ती अनेक आचार्यों ने विस्तृत स्पष्टीकरण दिया है। इसी कड़ी में तत्त्वार्थसूत्र के परम्परागत भाष्यकार आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के पहले ही सूत्र में रत्नत्रय का वर्णन किया है। __प्रथम शताब्दी से लेकर आचार्य विद्यानन्द के काल के मध्य में लगभग सात, आठ शताब्दी का अन्तर है। प्रश्न है क्या इस काल में कोई दर्शन की दृष्टि से विकास दृष्टिगत होता है? और प्रायः यह प्रश्न भी उभरता है कि भारतीय दर्शन का विकास विगत तीन सौ वर्षों से अवरूद्ध हो गया है अतः इसमें विस्तार की आवश्यकता है। किन्तु पाश्चात्य मनुष्यों का यह चिन्तन इस अपेक्षा से तो उचित है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जैनदर्शन को आधुनिक उद्धरणों एवं भाषाओं के माध्यम से विश्व में प्रस्तुत किया जाना चाहिए किन्तु यह कहना सर्वथा अनुचित है कि चिन्तन धारा अवरूद्ध हो चुकी है क्योंकि विकास की सम्भावना विकासशील में सम्भव होती है, विकसित में नहीं।
जैनदर्शन स्वयं में पूर्ण विकसित दर्शन है जिसने तत्त्व में निहित समस्त रहस्यों से पर्दा उठा दिया है। उक्त तथ्य को आधार करके यही कहना प्रासंगिक होगा कि आचार्य कुन्दकुन्द का कथन जिनेन्द्र देव, सर्वज्ञ भगवान् द्वारा कथित वचन है जो स्वयं में पूर्ण है अतः परवर्ती साहित्यकारों द्वारा उस पर कुछ भी कहना मात्र विषय का पिष्टपेषण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जिस रत्नत्रय के विषय को सूत्र रूप में, संक्षेप में प्रस्तुत किया है उसे बाद के रचनाकारों ने भाषा परिवर्तन द्वारा, विस्तार से अन्य उदाहरणों से समझाया है।
निश्चय रत्नत्रय का अपरनाम निश्चय मोक्षमार्ग है जिसे शुद्धात्मस्वरूप, परमात्मस्वरूप, परमनिजस्वरूप, सिद्ध, निरञ्जनरूप, निर्मलस्वरूप, स्वसंवेदनज्ञान, परमतत्त्वज्ञान आदि नामों से भी जाना जाता है।