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आचार्य वट्टकेर विरचित 'मूलाचार' और प्रायश्चित्त व्यवस्था
वैदिक ग्रन्थों में (हिन्दू-धर्म-कोश के अनुसार) 'प्रायश्चित्ति' और 'प्रायश्चित', इन दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में पाया जाता है। इनसे पापमुक्ति के लिए धार्मिक क्रियाएं अथवा तप करने का बोध होता है। परवर्ती साहित्य में प्रायश्चित्त शब्द का ही अधिक प्रयोग पाया जाता है । इस शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ की गई हैं। शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त का अर्थ प्रायः (तप), चित्त (दृढसंकल्प) अर्थात् तप करने का दृढ़ संकल्प किया है।" याज्ञवल्क्यस्मृति की वालभट्टी टीका में उद्धृत श्लोकार्थ के अनुसार इस शब्द का व्युत्पत्ति प्रायः पाप, वित्त, शुद्धि, अर्थात् पाप से शुद्धि की गई है - प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्त तस्य विशोधनम् । पाराशरमाधवीय ने किसी स्मृति के आधार पर एक अन्य तरह से भी प्रायश्चित की व्याख्या की है२ - “प्रायश्चित्त वह क्रिया है जिसके द्वारा अनुताप करने वाले पापी का चित्त मानसिक असंतुलन से (प्रायशः) मुक्त किया जाता है। प्रायश्चित नैमितिकीय कृत्य है किन्तु इसमें पाप मोचन की कामना कर्त्ता में होती है, जिससे वह काम्य भी कहा जा सकता है।"
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प्रायश्चित्त के पर्यायवाची नाम
मूलाचार में प्रायश्चित्त शब्द के आठ पर्यायवाची नाम गिनाए गये हैं- १. पूर्वकर्मक्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, घावन, पुज्छन, उत्क्षेपण और छेदन। मूल गाथा इस प्रकार है - पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुवणं ।
पुंछणमुच्छिवणं छिदणं ति पायच्छित्तस्स णामाई ॥
उपर्युक्त नामों की अपनी सार्थकता है।
प्रायश्चित्त का प्रयोजन -
प्रायश्चित्त क्यों किया जाता। इस प्रश्न का समाधान करते हुए अकलंकदेव कहते हैंप्रमाददोषव्युदास (दुःख), भाव प्रसाद (प्रसन्नता) निःशल्यत्व, अनवस्था निवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढ़ता एवं आराधना आदि की सिद्धि के लिए प्रायश्चित्त किया जाता हैकिमर्थमिदमुच्यते ? प्रमाददोषव्युदासभावप्रसादनैः शल्यानवस्थाव्यावृत्तिमर्यादा त्यागसंयमदार्द्वाराधनादिसिद्धयर्थं प्रायश्चित्तम्।४
प्रायश्चित्त परिभाषा -
मूलाचार के अनुसार, जिस क्रिया के द्वारा पहले किये गये पापों का शोधन होता है और आत्मा विशुद्ध होता है वह प्रायश्चित्त तप कहलाता है प्रायश्चितं ति तवो जेण विसुज्झदि हुपुव्वकयपावं यद्यपि तपाचरण गृहस्थ और मुनि, दोनों अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार करते हैं, परन्तु यहां पर मुनि अवस्था का ही प्रसंग है और इस अवस्था में प्रायश्चित्तादि तप व्रत जैसा रूप धारण कर लेते हैं। यद्यपि दोष या भूल शोधन के जितने भी प्रकार हो सकते हैं, वे सभी प्रायश्चित के अंतर्गत आ जाते हैं तथापि मुनि धर्म की अपेक्षा से धारण किये हुए व्रत में प्रमाद से उत्पन्न दोषों का शोधन करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है।
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हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार, पाप दो प्रकार के होते हैं ऐच्छिक और अनैच्छिक । इसलिए धर्मशास्त्र में इस बात पर विचार किया गया है कि दोनों प्रकार के पापों में प्रायश्चित्त करना आवश्यक है या नहीं। एक मत है कि केवल अनैच्छिक पाप प्रायश्चित्त से दूर होते हैं और उन्हीं को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए, ऐच्छिक पापों का फल तो भोगना