________________
अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर
74
ही पड़ता है, उनका मोचन प्रायश्चित्त से नहीं होता।" दूसरे मत के अनुसार, दोनों प्रकार के पापों के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए, भले ही पारलौकिक फलभोग (नरकादि) मनुष्य को अपने दुष्कर्म के कारण भोगना पड़े। प्रायश्चित्त के द्वारा वह सामाजिक संपर्क के योग्य हो जाता है।७
बहुत से ऐसे अपराध हैं कि जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का विधान धर्मशास्त्रों में पाया जाता है। जैसे- हत्या, चोरी, सपिण्ड से योनि संबन्ध, धोखा आदि । इसका कारण यह है कि राजदण्ड से मनुष्य के शारीरिक कार्यों पर नियंत्रण होता है, किन्तु उसकी मानसिक शुद्धि नहीं होती और वह सामाजिक संपर्क के योग्य नहीं बनता। अतः धर्मशास्त्र में प्रायश्चित्त भी आवश्यक बतलाया है। प्रायश्चित्त का विधान करते समय इस बात पर विचार किया गया है कि पाप अथवा अपराध कामतः (इच्छा से) किया गया है अथवा अनिच्छा से (अकामतः), प्रथम अपराध है या पुनरावृत्त। साथ ही परिस्थिति, समय, स्थान, वर्ण वय, शक्ति, विद्या, धन आदि पर भी विचार किया गया है।"
प्रायश्चित्त के भेद -
मूलाचार के अनुसार, प्रायश्चित्त के दस भेद हैं१८ - १. आलोचना, २ . प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. परिहार और १०. श्रद्धान । जैसा कि कहा गया है
आलोयण पडिकमणं उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो ।
तब छेदो मूलं विष परिहारो चैव सद्दहणा ।।
स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र, जीतकल्पसूत्र एवं व्यवहारसूत्र आदि में भी प्रायश्चित्तादि तपों की चर्चा पायी जाती है। प्रत्येक प्रायश्चित किन-किन और कैसे-कैसे दोषों पर लागू होता है। इसका विशेष विवरण भी इन ग्रन्थों में पाया जाता है। स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र एवं विला टीका में नवम प्रायश्चित्त का नाम अनवस्थाप्य (तपस्यापूर्वक पुनर्दीक्षा) बताया गया है और दशम का नाम पारांचिक या पारंचिक (भर्त्सना और अवहेलना पूर्वक पुनर्दीक्षा)। बाकी आठ नाम मूलाचार की ही तरह हैं । २२
तत्त्वार्थसूत्र एवं इसके टीका ग्रन्थों में प्रायश्चित के नौ ही भेद बताये गये हैं १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, और ९. उपस्थापन । इनमें 'मूल' व 'श्रुद्धान' की गणना नहीं की गई है और नवम प्रायश्चित्त का नाम उपस्थापना बताया गया है। इस का स्वरूप मूलाचारगत 'मूल' नामक प्रायश्चित्त की तरह है
१. आलोचना (आलोयण) मूलाधार वृत्तिकार के अनुसार, अपने गुरू के समक्ष सरल भाव से आत्मनिंदापूर्वक दोषों का प्रकट करना आलोचना है।" अकलंकदेव ने कहा है कि एकांत में विराजमान प्रसन्नचित्त गुरु के समक्ष देशकालज्ञ शिष्य द्वारा की जाती है, जिसमें शिष्य सरलबुद्धि बालक की तरह सविनय आत्म दोषों का निवेदन करता है। विशेष बात यह है कि यह आलोचन दश दोषों से रहित होनी चाहिए। ये दस दोष इस प्रकार हैं२७
-