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णवकार-मंत्र माहात्म्य
- डॉ. उदयचन्द्र जैन णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं। सब अरिहंतों, सब सिद्धों, सभी आचार्यों, उपाध्यायों और सभी साधुओं के लिए नमन है। यह मंगलसूत्र है देशामर्शक होने से मंगल, निमित्त हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता का भी बोधक है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों मंगलमय है।
अरिहंत - अ सिद्ध - अशरीर - अ आचाय - आ उपाध्याय - उ
साधु-मुनि-म-म (-) ये अ,अ,आ,उ और म् (-) मंगलाक्षर हैं। इनका अपना अपना महत्त्व है। अरिहंत केवलज्ञान युक्त विशुद्धात्मक रूप धातियाँ कर्म को क्षय करके प्राप्त होते हैं। अरिहंत - अरिहंता, अरहंत - अरहंता - प्रथमा बहुवचन का रूप है। धवला में 'अरिहंता' बहुवचनांत रूप में दिया है। देवदा णमोक्कार सूत्र में यह भी कथन किया है कि कर्म नाश करने वाले अरिहंत है। जो शुक्लध्यान से अरिहंत पद प्राप्त करते हैं। मूलाचार में सिद्धिगमन की योग्यता वाले अर्हन्त है। वे सातिशयं पूजा के योग्य होने से अर्हन्त है।
सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण उच्चंते। अर्ह शब्द पूजा, महान एवं उत्तम आदि अर्थ में होता है। शब्द कोश में अर्ह, का अर्थ योग्य, पूज्य, सम्माननीय, उपयुक्त, उचित, श्रेष्ठ, पूजा योग्य, अधिकार योग्य, शक्य एवं समर्थ विशेषण रूप में दिए हैं। इसी में पुल्लिंग शब्द के आधार पर भगवंत, सुरोत्तम, इन्द्र, घातिकर्म रहित, वंदन, नमन, पूजन, उत्तम गुरु एवं तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी नाम भी दिया है। ___णवकार मंत्र-माहात्म्य की प्रथम गाथा में लिखा है- घण-घाइ-कम्म-मुक्का अरहंता - संपूर्ण घातिकर्म मुक्त अरहंत (अर्हन्त) होते हैं। अरहंत (अर्हन्त) में अर्हन्ति - अर्हन्त है। प्राकृत में अर्ह में 'अ' आगम होने से अरह शब्द बन जाता है। अर्ह में शतृ प्रत्यय होने पर अर्हन्त और प्राकृत अरहंत बन जाता है। अरहंता प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का रूप है। वे अर्हन्त नमन योग्य तभी होते हैं जब उनमें अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनन्तवीर्य, अनंतविरति, क्षायिक, सम्यक्त्व, क्षायिक दान, लाभ, भोग और उपभोग गुण प्राप्त होते हैं। वे स्फटिक मणि की तरह देदीप्यमान, निरामय, निरंजन एवं दोषों से रहित होते हैं।