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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर
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जब क्षुल्लक अवस्था में महाराज कुदेवों को मूर्तियों को गाड़ी में भरभर कर नदी - तालाब में गिरवा रहे थे। वहां के राजा ने कहा- “आप ऐसा करके क्या इन देवताओं की आसादना नहीं कर रहे हैं ? क्षुल्लक महाराज ने कहा- राजन ! भाद्रपद में गणपति की स्थापना पर भक्ति पूजा करते हो । उसके बाद उनको पानी में क्यों सिरा देते हो ? राजा ने कहा - "पर्व पर्यन्त ही उनकी पूजा का काल था पश्चात् हम राम, हनुमान आदि मूर्तियों की पूजा करते हैं। क्षुल्लक जी ने दृढ़ता व मधुर वचनों से कहा 'हमने आजतक इन देवताओं की आराधना की, आज उनका पर्वकाल पूरा हो गया। अतः विनयपूर्वक पानी में सिरा देना ही उचित है। इनके स्थान पर अर्हन्त भगवान् की मूर्ति की आराधना करेंगे। एक प्रसंग और है एक व्यक्ति ने आचार्य श्री से प्रश्न पूछा क्या सम्यग्दृष्टि रोग निवारण के लिए मिथ्या मंत्रों का प्रयोग कर सकता है? बीच में एक विद्वान बोल उठे सम्यकदृष्टि श्रावक जैसे औषधि ले सकता है, उसी प्रकार औषधि रूप मिथ्या मंत्रों से भी लाभ ले सकता है। आचार्य श्री ने कहा -" औषधि लेने में बाधा नहीं क्योंकि औषधि न सम्यक्त्व है न मिथ्यात्व किन्तु मिथ्या देवों की आराधना युक्त मंत्रों से स्वार्थसिद्धि करने पर उसकी श्रद्धा में मलिनता आयेगी।”
उक्त प्रसंगों से १९वीं एवं २०वीं शताब्दी के पूर्वाध में प्रचलित मान्यताओं एवं श्रमण स्वरूप का आभास मिलता है।
चारित्र चक्रवर्ती पद -
सन् १९३७ में आचार्य श्री ने गजपंथा में चातुर्मास किया। यहाँ श्री पंचकल्याणक महोत्सव के दौरान आपकी कठोर तप साधना एवं चारित्र की प्राज्ञ्जल श्रेष्ठता को अनुभव कर चतुर्विध संघ एवं जैन समाज ने आपको चारित्र चक्रवर्ती पद से अलंकृत किया और स्वयं को धन्य माना। उस समय अनेक शिष्यों ने दिगम्बरी दीक्षा ली। जिसमें आ. कुंथसागर, आ. कल्प चन्द्रसागर, मुनि समन्तभद्र, मुनि श्री वर्धमान सागर, आ. नमिसागर आदि के नाम प्रमुख है। चारित्र चक्रवर्ती आ. शांतिसागर जी ने संघ की परंपरा को शास्त्रानुकूल एवं युगानुरूप अभिनव दिशा देने का महनीय कार्य किया।
कठोर तपस्वी एवं संयम के हिमालय
इस नश्वर देह से ऐसी अविनश्वर वीतरागी साधना का कलशारोहण भी संभव है जो अब कल्पनातीत लगती है। चिन्मयता के प्रांगण में, इन्द्रियों का इतना विवेकपूर्ण नियंत्रण और स्वात्मानुशासन का शिखर कीर्तिमान हासिल किया कि हिमालय की उत्तुंगता भी शरमा जाये।
चारित्र की विराटता को अपनी देहपुंज में समालीन कर ३५ वर्षों की मुनिदीक्षा अवधि में २७ वर्ष ३ माह और २३ दिन (९९३८ दिन) के उपवास धारण कर अत्यन्त कठिन सिंहनिष्क्रीडित व्रत को धारण किया जो इसके पूर्व केवल पुराणों में लिखा और पढ़ा जाता रहा। इस व्रत में ९० दिन के उपवास रखकर केवल १८ बार आहार ग्रहण किया जाता है। आपने तीन बार इसे धारण कर २७० उपवास करके इस मृण्मय काया में अमरता की संजीवनी बो गये।
इन पंक्तियों के लेखक ने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री के ४८ संस्मरणों का एक संकलन नये युग बोध/ संदर्भों के साथ "लोकोत्तर साधक" कृति के नाम से लिखी। यहाँ कुछ