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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर
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आप अकेले ही खींच लेते थे । एक असक्त वृद्धा शिखरजी पर्वत पर वंदनार्थ गयी। श्रद्धा से भरपूर, वंदना करने में असमर्थ अश्रुपात कर रही थी। आपकी करुणा और शक्ति, संवेदी हो उसे अपनी पीठ पर बिठाकर पूरी पर्वत की वंदना करवा दी। यह आपकी शारीरिक शक्ति का उपग्रह था ।
यद्यपि आपका नौ वर्ष की उम्र में सात वर्षीय कन्या के साथ बाल विवाह कर दिया गया था लेकिन छह महीने बाद उस कन्या का देहावसान हो गया। आपके माता पिता ने पुनः विवाह करने का बहुत आग्रह किया, परन्तु आपने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि मुझ गृहजाल में नहीं फँसना है । आपने मुनि सिद्धिसागर जी के समक्ष आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया।
विराग परिणति -
संत होना, केवल एक जन्म की साधना नहीं होती। न जाने कितने जन्मों की साधना का सुफल होता है। सातगौड़ा के पूर्व जन्म के वैराग्यमय संस्कार १८ वर्ष की अल्पायु में ही दीक्षा लेने की प्रेरणा देने लगे। किन्तु माता-पिता की समाधि के लिए वे गृह में ही सन्यासभाव से उदासीन बने रहे। आपके पिता श्री भीमगौड़ा जी ने यम- सल्लेखना लेकर शरीर का त्याग किया था। मां सत्यवती, पति की समाधि के पश्चात् क्षु. पार्श्वमती के पास, परिवार का मोह छोड़कर रहने लगी और १९१२ में माघ माह में आपने समाधिमरण किया।
गृहस्थावस्था में ३२ वर्ष की उम्र में तीर्थराज सम्मेदशिखर जी यात्रा (तीसरी वंदना ) के बाद पार्श्वनाथ की सुवर्णभद्र नामक कूट पर जीवन पर्यन्त घी और तेल का त्याग कर दिया। घर आने पर दिन में एक बार भोजन करने की प्रतिज्ञा ले ली । ३७ वर्ष की उम्र में पिताजी की समाधि के पश्चात् एक उपवास और एक दिन भोजन का नियम घर में रहते हुए लिया। अतः आप तो सन्त-स्वभाव लेकर ही पैदा हुए।
एक दिन कर्नाटक के उत्तर ग्राम में देवेन्द्रकीर्ति (देवप्पा स्वामी) मुनिराज आये तो आपने निर्ग्रन्थ दीक्षा के लिए प्रार्थना की। उन्होंने इस मार्ग को कठिन बताया, परन्तु सातगौड़ा के हृदय की दृढ़ता जानकर सहर्ष क्षुल्लक व्रत दिये। उत्कृष्ट वैराग्य से अलंकृत अन्तःकरण वाले क्षु० शांतिसागर गृहवास- पिंजरे से उन्मुक्त होकर आध्यात्म सिंह रूप से विहार करने लगे।
गृहस्थावस्था से ही आपके दयार्द्र परिणाम थे। खेती कृषिकर्म आपका मुख्य कार्य था। आप कभी भी अपने खेतों से पक्षियों को नहीं भगाते थे और खेतों के पास उन्हें पीने के लिए पानी रख देते थे। इसके बावजूद आपके खेतो में, समीपवर्ती खेतों से ज्यादा धान्यादि होता था ।
मुनिभक्त -
आपकी मुनिराजों के प्रति नैसर्गिक श्रद्धा थी। भोजग्राम में आने वाले प्रत्येक मुनि, आर्यिका एवं व्रतियों की सेवा वैयावृत्ति, तन मन और धन से करते थे। उस समय आदिसागर नाम के चार मुनिराज थे और आपका सभी से घनिष्ट संबन्ध था।
१. श्री आदिसागर मुनिराज बोरगांव, २. श्री आदिसागर मुनिराज अंकलीश्वर, ३. श्री आदिसागर भौंसेकर और ४. श्री आदिसागर भोज जो रत्नप्पा स्वामी के नाम से जाने जाते थे।