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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर बेईमानी, चोरी, धोखाधड़ी, नकारात्मक सोच, नकारात्मक भाव आदि व्यक्ति को निम्नगति की ओर ले जाते है। बुरे भाव या बुरे कार्य बुरे कर्मों के बंधन में निमित्त बनते हैं। “ठाणं" में इसका विस्तृत विवरण दिया गया है कि किन-किन प्रवृत्तियों को करने से व्यक्ति किस-किस गति को प्राप्त करता है। जैसे - महारंभ (हिंसा), महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय वध और मांसाहार करने वाला नरक गति को प्राप्त करता है। माया, प्रवंचना, अलीक वचन, कूटतौल-कूटमाप करने वाला तिर्यच गति को प्राप्त करता है। भद्र, विनीत, अनुकंपा रखने वाला और अमत्सरी मनुष्य गति को प्राप्त करता है। सराग संयम, संयमासंयम, बालतप और अकाम निर्जरा करने से व्यक्ति देव गति को प्राप्त करता है। इस प्रकार यदि व्यक्ति को यह ज्ञात रहे कि बुरी प्रवृत्ति या अनैतिक कार्य उसे पतन की ओर ले जाएगा तो वह उन कार्यों से दूरी बनाए रखेगा। श्लोक में दिया गया दृष्टान्त भी इसी ओर संकेत कर रहा है कि व्यक्ति जैसा कर्म करेगा वैसा ही बंधन भी करेगा। शिशुनाग (अलसिया) मिट्टी खाता है। उसका शरीर गीला होता है मिट्टी खाने के लिए वह निरंतर मिट्टी के ढेरों में घूमता रहता है। शरीर गीला होने की वजह से उसके शरीर पर भी मिट्टी चिपक जाती है। वह गीली मिट्टी तेज सूर्य में सूख जाने से वह शिशुनाग उस गर्म मिट्टी में झुलस-झुलस कर मर जाता है। इस प्रकार दोनों ओर से गृहित मिट्टी उसके विनाश का कारण बन जाती है। वैसे ही यह भी कहा जा सकता है कि अनैतिक कार्य या बुरे कर्म भी व्यक्ति को बंधन की ओर या विनाश की ओर ले जाने वाली होते हैं। अतः ये गाथाएं व्यक्ति को राग-द्वेष से मुक्त होकर अच्छे भावों में रहने एवं अच्छे कार्यों को करने के लिए प्रेरित करती हैं। समण-सुत्तं के कर्मसूत्र में उद्धृत यह गाथा
न तस्स दुक्खं विभयंति नाइयो, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा।
एक्को सयं न पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।। अर्थात् ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है।
यह गाथा जैन दर्शन में कर्मवाद के सिद्धान्त - ‘जो करेगा वो ही भरेगा' इस तथ्य को प्रकट करती है। जो व्यक्ति जैसा कार्य करेगा अर्थात् अच्छा करेगा तो उसको अच्छा फल मिलेगा। कोई दूसरा उस फल का संवेदन या अनुभव नहीं कर सकता। उसी प्रकार बुरा कर्म करेगा तो उसी व्यक्ति को उसका संवेदन करना होगा। यह सूत्रदर्शन की एक बहुत बड़ी समस्या का समाहारक है। दर्शन जगत् में एक बहुत बड़ा प्रश्न रहा है-क्या हम सभी एक ईश्वर या ब्रह्म के अंश है या फिर हम सब की आत्मा स्वतंत्र है? वैदिक दर्शन में जहां सभी को एक ईश्वर का अंश माना गया है, उनके सामने यह समस्या आती है कि यदि सभी एक ही ईश्वर के अंश है तो फिर ऐसा क्यों होता है कि कोई सुखी है तो कोई दुःखी है, कोई अमीर है तो कोई गरीब है, कोई ज्ञानवान है तो कोई धनवान है आदि। इसके साथ-साथ यदि हम सभी एक ही ईश्वर के अंश है तो एक के सुखी होने पर सब को सुखी होना चाहिए और एक के दुःखी होने पर सबको दुःखी होना चाहिए आदि-आदि। किन्तु ऐसा व्यवहारिक जगत् में दिखाई नहीं पड़ता।