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समण सुत्तं में उद्धृत कर्म सूत्रों की उपादेयता
समणी आगमप्रज्ञा
जैन दर्शन के मूल रूप से चार स्तम्भ है- आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । कर्मवाद जैन दर्शन का मूल सिद्धान्त है। कर्म शब्द के अनेक अर्थ किए जाते हैं जैसे कार्य, क्रिया, कारक और कर्म रूप परिणत होने वाले कर्म प्रायोग्य पुद्गल प्रस्तुत संदर्भ में कर्म के चतुर्थ अर्थ को ग्रहण किया जाएगा। कर्म को परिभाषित करते हुए उत्तराध्ययनवृत्ति में कहा
गया -
मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानुगतेनात्मना निर्वर्त्यत इति कर्म
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अर्थात् मिध्यात्व, अविरति कषाय और योग-इन आश्रवों से अनुगत आत्मा द्वारा जो किया जाता है वह कर्म है। इन अनन्त पुद्गलों से परिपूर्ण लोक में जो कर्मरूप परिणत होने योग्य नियत पुद्गल, आत्म-परिणाम के अनुसार बन्ध को प्राप्त होकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण रूप परिणाम देते है उन्हें कर्म कहा जाता है। “समण सुतं" में कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित ग्यारह गाथाओं का समावेश है- जो विभिन्न ग्रन्थों जैसे- उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प भाष्य, गोम्मटसार आदि से उद्धृत हैं। इन ग्यारह गाथाओं में जैन कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित विभिन्न तथ्य- जिसमें संक्षेप में आठ कर्म, भावों के अनुसार शुभ अशुभ कर्मों का बंधन, कर्म बंध का कारण-राग-द्वेष, स्वयं द्वारा किए कर्मों का स्वयं द्वारा भुगतान, कर्मों के स्वभाव आदि का उल्लेख है। इस शोध आलेख के अन्तर्गत इन गाथाओं में दिए गए कर्म सिद्धान्तों के व्यावहारिक एवं दार्शनिक महत्त्व को प्रकाशित किया जाएगा। कर्म आठ हैं। इन आठों कर्मों की जानकारी देने हेतु "समणसुत्तं" में उत्तराध्ययन से दो श्लोक उद्धृत किये गये हैंनाणस्सवरणिज्जं, दंसणावरणं तहा।
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बेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्पं तहेबया ।।
नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य ।
एवमेयाई कम्माई, अट्ठेव उ समासओ ।।
अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-ये आठ कर्म हैं। इन दो गाथाओं में कर्मों का नामोल्लेख किया गया है। कर्मों के नाम से ही उनके कार्य भी ज्ञात हो जाते हैं। इन आठ कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये घाति कर्म कहलाते हैं क्योंकि ये कर्म हमारी आत्मा के मूल गुणों जैसे - ज्ञान, दर्शन आदि का घात करते हैं वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य ये कर्म मूल गुणों का घात न करने से अघाति कहलाते हैं। ज्ञानवरणीय और दर्शनावरणीय कर्म हमारे ज्ञान और दर्शन को आवृत्ति करते हैं। मोहनीय कर्म हमारी दृष्टि एवं चरित्र में विकार उत्पन्न करता है । अन्तराय