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आचार्य श्री शांतिसागर जी एवं श्रमण परंपरा कल आज और कल
संस्मरण रेखांकित करना, जो उनके पारदर्शी आध्यात्मिकऊर्जा से परिवेष्ठित व्यक्तित्व की एक झलक है, उपादेय एवं सन्दर्भित है।
संस्मरणों के सालोक में चारित्र चक्रवर्ती
१. निद्रा विजय तप का पालन करते हुए आचार्य श्री एक जंगल में स्थित मंदिर के भीतर एकान्त स्थान में ध्यानस्थ थे। दीपक का तेल बिखर जाने से आसपास असंख्य चींटियों का समुदाय एकत्रित हो गया और वे धीरे धीरे आचार्य श्री के शरीर पर रेंगकर अधोभाग (गुप्तांग) को कटाना शुरू कर दिया। रातभर चींटियों के काटने की असहय वेदना में भी वे निष्कम्प ध्यानारूढ़ रहे खून बहने लगा था परन्तु वह निर्ग्रन्थ आचार्य ऐसे ध्यान में निरत रहे जैसे सांख्य दर्शन का पुष्कर पलाशवत् निर्लिप्त पुरुष, प्रकृति की लीला देख रहा हो । प्रातः काल के उजाले में, जन समूह वहां एकत्रित होकर जब यह दृश्य देखता है, तो जन जन की संवेदनाएं रो उठतीं हैं।
चींटियों द्वारा उपसर्ग - वस्तुतः प्रतिकूलता में समता, सहिष्णुता का सतत् निर्झर था । एक कसौटी थी यह परखने की, कि इन्द्रियाँ व मन, आत्म स्वभाव की कितनी आज्ञानुवर्ती हैं। २. क्षमा व धैर्य के अक्षत पुंज
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एक बार 'विष और अमृत' का मिलन देखा गया । वस्तुतः प्रतिशोध- विष है और क्षमा-अमृत है। ताम्र लाल रंग का सात आठ हाथ लम्बा विषधर फन उठाये आचार्य श्री के सामने खड़ा हो गया। उसकी लपलपाती जीभ और विष के अंगारे उगल रहीं आँखें, अनुकम्पामयी अहिंसक आँखों से टकरा रहीं थी। आचार्य श्री शान्त, करुणा की मूर्ति उस सर्पराज को निर्निमेष दृष्टि से निहार रहे थे। शान्ति के सागर, उस यमराज को एक आगन्तुक दर्शनार्थी की भांति धर्मवृद्धि का आशीर्वाद दे रहे थे अद्भुत दृश्य था। एक ने पूछा उन क्षणों में आप क्या सोच रहे थे आचार्यश्री वे कहने लगे "यदि मैंने इस जीव का पूर्व में कभी कोई बिगाड़ किया होगा, तो वह भी हमें बाधा पहुंचायेगा, अन्यथा चुपचाप चला जायेगा।” ३. करूणा के मानसरोवर के हँस
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गृहस्थावस्था में खेत पर गये। देखा नौकर ज्वार का गट्ठा बांधकर चोरी से ले जा रहा है। ये पीठ करके चुपचाप बैठ गये विचारने लगे 'बुभुक्षतं किं न करोति पापं गरीब पेट के लिए ही तो अनाज ले जा रहा है। नौकर इस घटना से इतना प्रभावित हुआ कि क्षमा माँगने भागता हुआ घर आया।
४. क्षमा जीवन्त हो उठी
कोगनोली गांव के बाहर - निर्जन गुफा में रात्रि में आचार्य श्री आत्मलीन हैं। एक पागल आकर महाराज श्री से रोटी मांगने लगा। भूख से पीड़ित चिल्लाने लगा। महाराज श्री मौन । पागल उत्तेजित हो उठा। हाथ में डण्डा, जिसके एक सिरे पर लोहे की नोंक, उसी से मारने लगा। घाव हो गए, खून बहने लगा। ऐसी विकट परिस्थिति में कौन रोकने वाला था ? ओह! क्षमा की अपूर्व असीम शक्ति! पागल की बुद्धि में न जाने क्या आया कि गुफा से कुछ समय बाद बाहर हो गया । प्रातः होते ही बिजली की भाँति यह घटना गांव में फैल गयी। लेकिन आचार्य श्री शान्त भाव से मौन रहे । उपचार व वैयावृत्ति से स्वास्थ्य लाभ हुआ।