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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर दर्शन काउपकार किया है। अकलंकदेव का मूल सिद्धिविनिश्चय एवं उसकी स्ववृत्ति अप्राप्य है, केवल उसकी टीका की एक पाण्डुलिपि के आधार पर डॉ. जैन ने इस अमूल्य ग्रन्थ का पुनर्निर्माण किया है, यत्र तत्र अन्य साधनों का उपयोग किया है। इस कार्य के संपादन में जो महान् प्रयत्न एवं परिश्रम निहित है, उसका केवल अनुमान किया जा सकता है। उनकी यह दीर्घकालीन साधना सफल हुई, जिसके फलस्वरूप एक अत्युत्तम ग्रन्थ का बड़ा शोधपूर्ण संस्करण प्राप्त हुआ है। इस ग्रन्थमें सिद्धिविनिश्चय मूल, उसकी स्ववृत्ति तथा अनन्तवीर्य टीका के अतिरिक्त १६४ पृष्ठ की हिन्दी की और ११६ पृष्ठ की अंग्रेजी की एक सुविस्तृत टीका लिखी गई है और साथ साथ तुलनात्मक संस्कृत 'आलोक टिप्पण भी दिए गए हैं। श्रीमद्भट्टाकलंकदेव जैन न्याय के प्रतिष्ठापक पद पर प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने आचार्य समन्तभद्र
और सिद्धसेन से प्राप्त भूमिका पर प्राचीन आगमिक शब्दों और परिभाषाओं को दार्शनिक रूप देकर अकलंक न्याय का प्रस्थापन किया है। प्रमाण की व्यवस्थित परिभाषायें और भेद-प्रभेद की रचना करने का बहुत बड़ा श्रेय भट्टाकलंकदेव को है। बौद्धदर्शन में धर्मकीर्ति, मीमांसादर्शन में भट्टकुमारिल, प्रभाकर दर्शन में प्रभाकर मिश्र, न्यायवैशेषिक में उद्योतकर और व्योमशिव तथा वेदान्त में शंकराचार्य का जो स्थान है, वही जैन न्याय में भट्ट अकलंक का है। ईसा की ७वीं ८वीं और नवमी शताब्दियाँ मध्यकालीन दार्शनिक इतिहास की क्रांतिपूर्ण शताब्दियाँ थीं। इनमें प्रत्येकदर्शन ने जहाँ स्वदर्शन की किलेबन्दी की, वहाँ परदर्शन पर विजय पाने का अभियान भी किया। इन शताब्दियों में बड़े बड़े शास्त्रार्थ हुए। उद्भट वादियों ने अपने पाण्डित्य का डिंडिम नाद किया तथा दर्शन प्रभावना और तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण के लिए राज्याश्रय प्राप्त करने हेतु वाद रोपे गए। इस युग के ग्रन्थों में स्वसिद्धान्त के प्रतिपादन की अपेक्षा परपक्ष के खण्डन का भाग ही प्रमुख रूप से रहा है। इसी युग में महावादी भट्टाकलंक ने जैन न्याय के अभेद्य दुर्ग का निर्माण किया था। उनकी यशोगाथा शिलालेखों और ग्रन्थकारों के उल्लेखों में बिखरी पड़ी है। पं. महेन्द्रकुमार जैन ने इन सब उल्लेखों को उद्धृत कर इनकी समीक्षा की है। अपनी विद्वतापूर्ण प्रस्तावना में उन्होंने अनेक आचार्यों से तुलना की है। जैसेआचार्य पुष्पदंत भूतबलि और अकलंक, कुन्दकुन्द और अकलंक, समन्तभद्र और अकलंक, सिद्धसेन और अकलंक, यतिवृषभ और अकलंक, श्रीदत्त और अकलंक, तथा पूज्यपाद, मल्लवादी, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, पात्रकेसरी, भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति, जयराशि, प्रज्ञाकर गुप्त, अर्चट, शान्तभद्र, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि, अभयदेवसूरि, सोमदेवसूरि, अनन्तकीर्ति, माणिक्यनन्दि,शान्तिसूरि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र मलयगिरि, चन्द्रसेन, रत्नप्रभ, आशाधर, अभयचन्द्र, देवेन्द्रसूरि, धर्मभूषण, विमलदास तथा यशोविजय आचार्य की अकलङ्कदेव से तुलना की है।
पण्डित महेन्द्रकुमार जैन ने गहन ऊहापोह कर अकलंकदेव का समय ई.७२० से ७८० सिद्ध किया है। हो सकता है, वे कुछ और भी जीवित रहे हों।
भट्टालङ्क उस शताब्दी के व्यक्ति हैं, जब धर्मकीर्ति और उसके टीकाकार शास्त्रार्थों की धूम मचाए हुए थे। अतः अकलङ्कदेव के दार्शनिक प्रकरणों में उस युग की प्रतिक्रिया की प्रतिध्वनि बराबर सुनाई देती है। वे जब भी अवसर पाते हैं, बौद्धों के तीक्ष्ण खण्डन में नहीं