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न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार जैन और उनके द्वारा सम्पादित सिद्धिविनिश्चय टीका
मौलिक तत्त्वों का प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसके अतिरिक्त उनको अन्य संपादित कृतियाँ हैं - १. न्यायकुमुदचन्द्र २. प्रमेयकमल मार्तण्ड ३. अकलंकग्रन्थत्रय ४. न्यायविनिश्चय विवरण ५ तत्त्वार्थवार्तिक ६. सिद्धिविनिश्चय ७. तत्त्वार्थवृत्ति ८. जयधवला (प्रथम पुस्तक) ९. प्रमाणमीमांसा १०. जैन तर्क भाषा ११. षड्दर्शनसमुच्चय १२. सत्य शासन परीक्षा १३. विश्वतत्त्व प्रकाश १४. प्रमाण प्रमेय कलिका १५. युक्त्यनुशासन १६. आत्मानुशासन १७. विविध तीर्थकल्प १८. प्रभावक चरित्र ।
पं. महेन्द्र कुमार जैन ज्ञानपीठ संभालने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बौद्धदर्शन के अध्यापक हो गए। उनका सबसे प्रथम संपादित ग्रन्थ न्यायकुमुदचन्द्र था, जो जैन न्याय का अपूर्व ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन माणिकचन्द जैन ग्रन्थमाला बम्बई की ओर से हुआ। उसके बाद न्यायाचार्य जी ने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड का संपादन किया और पं. सुखलाल जी के साथ भी गई ग्रन्थों का संपादन किया। सिंघी जैन ग्रन्थमाला से उनके द्वारा संपादित अकलंक ग्रन्थत्रय का प्रकाशन हुआ । उसकी प्रस्तावना से उनकी विद्वत्ता चमक उठी । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में रहते हुए उन्होंने सिद्धिविनिश्चय का संपादन किया। उसी पर से उन्हें पी. एच. डी. उपाधि प्राप्त हुई। वे जैन विद्वानों में सर्वप्रथम पी. एच. डी. हुए। उनकी नियुक्ति काशी के संस्कृत विश्वविद्यालय में प्राकृत तथा जैनदर्शन विभाग के अध्यक्ष पद पर होने वाली थी, कि उन्हें पक्षाघात हो गया। पक्षाघात के दूसरे आक्रमण के फलस्वरूप ४८ वर्ष में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु पर सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने लिखा था
" जैन न्याय का उनके जैसा अधिकारी विद्वान् कोई दृष्टिगोचर नहीं होता, जो उनका भार संभालने की योग्यता रखता हो। दर्शन के प्रायः सभी ग्रन्थों का उन्होंने पारायण कर डाला था। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, बौद्ध सभी दर्शनों के ग्रन्थ उनके दृष्टिपथ से निकल चुके थे। संपादन कला के तो वह आचार्य हो गए थे । विद्यानन्द स्वामी की अष्टसहस्री और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे महान् दार्शनिक ग्रन्थ सिद्धिविनिश्चय के प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। हम सोचा करते थे कि महेन्द्रकुमार जी के द्वारा एक एक करके इन सबका उद्धार हो जायेगा, किन्तु हमारा सोचना भी उनके साथ ही चला गया। उनके जैसा अध्यवसायी, कर्मठ और धुन का पक्का व्यक्ति होना कठिन है। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था - "स्वकार्यं साधयेत् धीमान्", बुद्धिमान का कर्तव्य है कि अपने कार्य की सिद्धि करे।
एक बार वाराणसी में सर्व वेद शाखा सम्मेलन का आयोजन हुआ था और उसमें वेदविरोधी विद्वानों को भी बोलने के लिए आमंत्रित किया था। पं. महेन्द्रकुमार जी ने वेद के अपौरुषेयत्व के विरोध में संस्कृत में बोला। संस्कृत विश्वविद्यालय में उनके पहुँच जाने से जैन संस्कृति को अवश्य ही बल मिलता, इसमें संदेह नहीं है। किन्तु दुःख यही है कि असमय में ही और वह भी अचानक ही उनका हमसे सदा के लिए वियोग हो गया।" पं. महेन्द्रकुमार जैन द्वारा संपादित सिसिद्धविनिश्चय टीका
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पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने अकलंकदेव के लुप्त ग्रन्थ सिद्धि विनिश्चय और उसकी स्ववृत्ति का उद्धार तथा आचार्य अनन्तवीर्य की टीका के साथ उसका समालोचनात्मक संपादन करके न केवल जैनदर्शन की महती सेवा की है, वरन् मध्यकालीन समग्र भारतीय