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आचार्य श्री शांतिसागर जी एवं श्रमण परंपरा : कल आज और कल (२) अवमौदर्य तप - १९४८ में अगस्त के द्विसप्ताह से “जिन मंदिरों में हरिजन प्रवेश" मुम्बई हाईकोर्ट के निर्णय के विरूद्ध अन्न ग्रहण नहीं किया। अगस्त १९५१ रक्षाबन्धन के दिन जब उक्त निर्णय खारिज हुआ तभी अन्न लिया।
(३) व्रतपरिसंख्यान तप - कठिन कठिन प्रतिज्ञाएं लेकर आहार चर्या को निकलना। १. एकबार तत्काल प्रसूत बछड़े के साथ गाय दिखेगी तभी आहार लेगें। पुण्योदय से यह योग मिला। २. १९३० ग्वालियर शीलकाल में गीले वस्त्र पहनकर जो श्रावक पड़गाहन करेगा तो आहार लेंगे।
(४) रस परित्याग - ३२ वर्ष कीअवस्था में तेल घी का त्याग और ललितपुर चातुर्मास में फलादि रसों के साथ सभी रसों का त्याग।
(५) विविक्त शयनासन - १९२३ में कौन्नूर चातुर्मास। अपरिचित गुफा में झाड़ी से सर्प गुफा में प्रवेश और महाराज के शरीर पर चढ़ गया। ध्यान में अडिग रहे।
(६) कायक्लेश तप -८-८ घण्टे एक ही आसन से ध्यान में बैठकर अकाम निर्जरा कर - 'कार्माण-काय' को भी क्षीण करना। श्रमण परम्परा - आज और परिवर्तन का शंखनाद -
वर्तमान में आचार्य संघ और उनकी परम्परायें कई धाराओं में प्रवहमान है। मूलधारा चा. चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी की विद्यमान है। उनके वरिष्ठ शिष्य श्री वीर सागर जी प्रथम पट्टाचार्य हुए उसके बाद क्रमशः आ. शिवसागर जी, आ. अजितसागर जी, आ. धर्मसागर जी ओर अभी आ. श्री वर्धमान सागर जी पट्टाचार्य हैं। आ. विमलसागर जी, आ. (गणाचार्य) विरागसागर जी, आ. विशुद्धसागर जी आदि हैं। आ. शिवसागर के पश्चात् पंथ भेद के कारण आ. अभिनंदन सागर एवं आचार्य ज्ञानसागर जी की परंपरा में उनके सुयोग्य महान विश्रुत संत शिरोमणि आ. विद्यासागर जी हैं। आ. विद्यासागर जी का सबसे बड़ा संघ और उनके प्रभावशाली शिष्य मुनि संपूर्ण भारत में विचरण कर रहे हैं। आ. विमलसागर ने स्वतंत्र आचार्य पद देकर युवा मुनियों के आध्यात्मिक एवं आत्मिक विकास को अभिनव दिशा दी। आचार्य पुष्पदंत जी की सोच ने अपने युवा मुनि शिष्यों को लोकसंत और राष्ट्रसंत की नई लहर दी।
(१) साधु, समाज की आँख होते हैं। आज साधु- जिसमें आचार्य व उपाध्याय पद भी समाहित हैं, की बड़ी प्रभावना देखी जा रही है। समाज ने भी नयी पीढ़ी के सांस्कृतिक सुख- स्वप्न, उनके जिम्मे कर दिये हैं। आ. कुन्दकुन्द ने अष्ट पाहुड़ में मुनि का जो स्वरूप गढ़ा है जो मौलिकताएं रेखांकित की हैं, क्या २१वीं सदी का दि० साधु उन मौलिकताओं के साथ अपनी मुनि-चर्या संपन्न कर रहा है, विचारणीय बन गया है।
(२) आज एक संघ के आचार्य व मुनिगण एवं दूसरे संघ के आचार्य व मुनिगणों के बीच वात्सल्य व सौहार्द का भाव अपेक्षाकृत कम नजर आ रहा है।