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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर ५. सिंह का समर्पण - नृसिंह को
घटना है सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि की। दि० मुनि सिंहवृत्ति वाला निर्भयी और अकेला अकम्प रहने वाला होता है। दैन्यता उसे स्वीकार नहीं। सिंह की हिंसक पर्याय उसकी नियत है। पेट भरा हो तो वह फिर हिंसक नहीं होता क्योंकि वह क्रूर नहीं होता । आचार्य श्री पर्वतमाला के एक मंदिर में ध्यानस्थ हैं। संध्या से ही एक सिंह पास में आ गया। रात भर बैठा रहा। प्रातः ८ बजे जब आचार्य श्री नीचे उतरकर नहीं आये तो शंकाओं ने लोगों का धैर्य तोड़ दिया। वे पहाड़ पर गये तो आचार्य श्री को मंदिर से नीचे उतरते देखा। बिलम्ब का कारण आखिर मौन तोड़कर उन्हें बताना पड़ा। आज वनपति - यतिपति के दर्शनार्थ आया था। नृसिंह का, सामीप्य-सौजन्य सिंह के लिए सालोक पूर्ण बन गया था। अहिंसक के चरणों में हिंसक का समर्पण था। ६. सम्यक्त्व की सम्पदा - अनासक्ति -
हम शरीर के तल पर जीते हैं। चाहे आत्मा रुग्ण बनी रहे इसकी कोई चिन्ता नहीं। आचार्य श्री यम सल्लेखना के २ माह पूर्व कुंथलगिरि में विराजमान थे। पीठ पर 'दाद' फैल रही थी। एक श्रावक ने दाद की दवाई लगाने को कहा। चारित्र चक्रवर्ती की दृष्टि तो यम-सल्लेखना लेने की थी। बोले - भैया ! बहुत दवाई लगाई। मेरा (शरीर का) रोग पिण्ड नहीं छोड़ रहा है। बस एक दवाई करना भर शेष है। यह सारे रोग नष्ट हो जायेंगे। महाराज ! दवाई का नाम बतावें लाने का प्रयास करूंगा। मंद मुस्कान से बोले - “अभी तूं वह दवा नहीं जानता। ७. समत्व की साधना
राजाखेड़ा (२८ फरवरी १९३०) की घटना षडयंत्र की अदृश्य भाव तरंगे - आचार्य श्री को उद्धेलित कर रही थीं। उन्होंने अन्यत्र विहारकरने की सोची लेकिन बाहर से अनेक विद्वज्जन पधारने से वे रुक गये। यह उनका विद्वानों के प्रति वात्सल्य भाव था। पाँचवें दिन कल्पनातीत घटना घटी। चार पांच सौ उपद्रवकारी संगठित होकर आक्रमण करने की खोटी भावना से मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन उस दिन आचार्य श्री ने सामयिक बाहर धूप में न करके मंदिर जी के भीतर करने का आदेश दिया था। चबूतरे पर आक्रमणकारियों को कोई साधुजन बैठे नहीं दिखे। छिद्दी बाह्यण मुखिया था। विद्वेषीजन आक्रमण करने की नियत से मंदिर के भीतर बढ़ने लगे। लेकिन श्रावकों ने प्राणों की परवाह किये बिना उनका सामना किया। उपद्रव की खबर बिजली की भांति नगर में फैल गयी। पुलिस अधिकारी आचार्य श्री के पास आये। उन्होंने छिद्दी को हिरासत में लिया। लेकिन करुणावन्त आचार्य श्री ने प्रतिज्ञा कर ली, जब तक हिरासत से नही छोड़ेंगे, आहार जल का त्याग। ऐसा महान संत, अधिकारियों ने प्रथम बार देखा कि प्राणों के घातक के लिए इतनी अपूर्व क्षमा और समता भाव। अन्तरंग एवं बाह्य तपों के आराधक मनस्वी महाव्रती
आत्म-बल आपका अपराजेय था। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान रूप छह आभ्यन्तर तपों के साधक बाह्य तपों का निरतिचार पालन करना आपकी आहार चर्या का अभिन्न अंग था।
(१) अनशन-३५ वर्ष की निर्ग्रन्थ मुनि दशा में ९९३८ उपवासों की आराधना।