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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर
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गया है। इन मूर्तियों में हथेली एवं तलवों पर धर्मचक्र का चिन्ह, भोहों के मध्य उर्णा (रोगगुच्छ) आदि परम्पराएं विद्यमान है। जिन मूर्तियों में उष्णीष कुछ अधिक सुन्दर तथा घुघरालेपन लिए हुऐ है, प्रभा मण्डल में भी विशेष सजावट देखी जा सकती है। धर्म चक्र का उत्कीर्णन पूर्ण वृत्त रूप में किया गया है। इस समय तीर्थकरों के मूर्ति शिल्प में ऊष्ट ग्रहों, मालाधारी गंधर्वो व नेमीनाथ के साथ कृष्ण, बलदेव की मूर्तियों को भी बनाया गया है। इस समय की जैन मूर्तियां के विदेशों के संग्रहालय में देवगढ़, राजग्रह, बेसनगर, बूंदी चंदेरी आदि जगह गुप्तकालीन जैन शिल्प व अभिलेख के दर्शन हो सकते है।
ऐलोरा (६-९ वीं ई.) मे भी पाँच गुफाओं (३०-३४) में भी जैन धर्म की दार्शनिकता दिखाई देती है। यहाँ इन्द्र सभा का अंलकरण एवं मूर्तन बेजोड़ है। इसमें इन्द्र, इन्द्राणी एंव महावीर भगवान का मूर्तन भव्य बन पड़ा है। इस के अलावा देश में कई जगह और राजस्थान में भी जैन शिल्प अद्वितीय है। औसिया (जौधपुर) दिलवाड़ा मन्दिर, रणकपुर (पाली), गिरनार के जैन मन्दिर, बेलूर, तिरक्कोल, श्रवणबेलगोला, चन्द्रगिरी, मदुरई, चिन्तुर आदि के कलात्मक स्पष्ट रुप से देखी जा सकती है।
जैन धर्म पर आधारित उत्कृष्ट भिति चित्रों कि शिल्पों के अलावा इस धर्म का एक रुप पट चित्रों, ताड़पत्रों, भोजपत्रों पर व कागज पर बनी लघु चित्रशैली के रूप में भी देखा जा सकता है। ग्रन्थों व वसली पर जैन शैली जिसे अपभ्रंश भी कहा जाता है, में जो चित्र बने हैं वह कई अन्य धर्मों व विषयों पर भी है, किन्तु चित्रों की कुछ कलात्मक विशेषताएँ ऐसी है, जिसे जैन शैली के चित्र कहा जाता है। जैन कला का मुख्य ध्येय ज्ञान रंजन व लोक रंजन दोनों ही रहा है और मुख्य उद्देश्य दर्शन व धर्म के गूढ विषयों को कला व चित्रों के माध्यम से आमजन तक पहुँचाना था ताकि वे अपने जीवन की महत्त्वता व कलात्मकता के साथ आसानी से जैन दर्शन को भी समझें ।
भारतीय चित्रकला में वाचस्पति गेरोला ने जैन ग्रन्थों का आरम्भ ५०० ई० पूर्व माना है। यह ताड़पत्रों, कागज आदि पर लिपिबद्ध हुए हैं। जैन शैली के सचित्र ग्रन्थ लघु चित्र या पोथी चित्र (दृष्टान्तचित्र) ७वी० ई० के बाद से ही आरम्भ से ही आरम्भ माना गया है। बौद्ध ग्रन्थों की भांति जैन ग्रन्थों को भी सचित्र किया गया व इन्हें लघु चित्रशैली की श्रेणी में रखा जाता है। वाचस्पति गेरोला ने (पृ० सं० १३६) में जैन कला को भारतीय चित्रकला के इतिहास में कागज पर की गई समृद्धि में सर्वाधिक उल्लेखनीय योगदान जैन कलाकारों का है। जैन कला के अधिकतर प्रमाण कलाकारों को निपूर्णता के साथ ताड़पत्रीय पोथियों व पाण्डुलिपियों में देखने को मिलता है। ताड़पत्रों पर बने प्राचीनतम् चित्र श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय की निशीथ चूर्णी (११०० ई०) नामक पुस्तक में है । दशवैकालिक लघुवृत्ति, त्रिष्ठिशलाकापुरूष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कल्पसूत्र, कालकाचार्य कला में चित्रित सबसे प्राचीन उदाहरण मिलते है। मूड बिदिरे में होयसाल कालीन ताड़पत्रीय जैन ग्रन्थ "वीरसेन की धवल" जयधवल तथा महाधवल टीकाएँ सुरक्षित है। इन चित्रों में प्रायः चोकोर स्थान में एक आकृति बनी होती है। देवी-देवताओं के चित्रों को केवल आयुधों व वाहनों से ही पहचाना जा सकता है।