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वैचारिक समन्वय के रूप में अनेकान्तवाद (२०वीं शताब्दी के जैनाचार्यों के चिंतन में)
- रामनरेश जैन
अनेकान्त जैनदर्शन का हृदय है। सकल जैन साहित्य अनेकान्त के रूप में कथित है। अनेकान्त स्याद्वाद को समझे बिना जैनदर्शन को समझ पाना तो दुष्कर है ही, उसमें प्रवेश पाना भी कठिन है। अनेकान्त दृष्टि एक ऐसी दृष्टि है, जो वस्तुत्तत्त्व को उसके समग्र स्वरूप के साथ प्रस्तुत करती है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु बहुआयामी है वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्म व्याप्त है। एकान्त दृष्टि से वस्तु का समग्र बोध नहीं कर सकते हैं । वस्तुतत्त्व
समग्र बोध के लिए समग्र दृष्टि अपनाने की जरूरत है और वह अनेकान्त दृष्टि अपनाने पर ही संभव है। बीसवीं शताब्दी के जैनाचार्यों ने भी अनेकान्त स्याद्वाद के माध्यम से समग्रतापूर्ण चिंतन प्रस्तुत किया है। आचार्य ज्ञानसागर कहते हैं
अनेकशक्त्यात्मक वस्तु तत्त्वं तदेकवा सवदतो%न्यसत्वम् । समर्थयत्स्यात्पदमन्न भाति स्याद्वादनामैवमिहोक्ति जाति ॥
अर्थात् वस्तु तत्त्व अनेक शकल्यात्मक है, अनेक शक्तियों का पुंज है। जब कोई मनुष्य एक शक्ति की अपेक्षा से उसका वर्णन करता है तब वह अन्य शक्तियों के सत्व का अन्य अपेक्षाओं से समर्थन करता ही है। इस अन्य शक्तियों की अपेक्षा को जैन सिद्धान्त स्यात् पद से प्रकट करता है। वस्तुतत्त्व के कथन में इस स्यात् अर्थात् कथंचित् पद के प्रयोग का नाम ही स्याद्वाद है। इसे ही कथंचित्वाद या अनेकान्तवाद भी कहते हैं।
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आचार्य तुलसी कहते हैं कि एक वस्तु में अनेक विरोधी का स्वीकार ही अनेकान्त है। संसार की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं होती जिसका एक ही रूप हो। अनेक विरोधी रूपों का बोध अनेकान्त दृष्टि द्वारा ही संभव है। आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं अनेकान्त शब्द की रचना दृष्टि से निषेधात्मक है किन्तु पर्याय की दृष्टि से वह निषेधात्म नहीं है । अनेकान्त द्रव्य और पर्याय की सापेक्षता का वाचक है। अनेक का अर्थ एक से अधिक है पर उसका अर्थ अनिश्चित या अनन्त नहीं है। आचार्य देवेन्द्र मुनि कहते है अनेकान्तवाद जैन परंपरा की एक विलक्षण सूझ है, जो वास्तविक सत्य का साक्षात्कार करने में सहायक है। इसी प्रकार अनेकान्तवाद की महिमा बताते हुए आचार्य विद्यानंद कहते है भारतीय साहित्य में स्याद्वाद, अनेकान्तवाद और सापेक्षवाद के बिना शुरूआत ही नहीं हो सकती और न ही हम वक्ता लोग बिना सापेक्षवाद के किसी को कुछ बता सकते हैं।
स्याद्वाद यह स्यात्+वाद इन दो शब्दों से मिलकर बना है। स्याद् यह शब्द निपात अव्यय है। वाद- कथन करना, मान्यता आदि धर्मों के रूप में ज्ञात होता है । स्यात् शब्द तिडन्त