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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर (हरताल, प्योडी) नीला (लाजवन्ती तथा नील) सफेद एवं काला के सम्मिश्रण से उत्पन्न हरे, गुलाबी, बैंगनी फाख्तई आदि रंगो का प्रयोग मिलता है। पटरों के चित्रों या उनकी रक्षा के लिए लाख चढी होती थी। भिति चित्रों के निर्माण से पहले बौद्धकला और जैनकला का समृद्व रूप मूर्तियों तथा मन्दिरों के शिल्प में सुरक्षित था। जैन शैली मारवाड, अहमदाबाद, मालवा, जौनपुर, अवध, पंजाब , बंगाल और उड़ीसा के साथ-साथ नेपाल ,बर्मा तथा स्याम में भी यह शैली
पहुँची।
जैन चित्रकला अपभ्रंश अपने समृद्ध स्वरूप में भारतीय चित्रकला में रची बसी होकर भी अपना अलग अस्तित्व रखती है। जैनागम में स्पष्ट लिखा है -
सर्व एवहि जैनानां प्रमाणं लौकिक विधिः।
यत्र सम्यक्त्व हार्निन यत्र न व्रत दूषणम्॥(आदिपुराण) कला कल्याण की जननी है। पुराणों में ऐतिहासिक ६३ महापुरूषों का जीवन वृतान्त है जिसमें २४ तीर्थकर, बारह चकवर्ती , नौ बलभद्र , नौ नारायण और नौ प्रतिनारायण के कथानक हैं। जैन साहित्य व कला (वास्तु, मूर्ति, चित्र) इन्हीं के
आदर्शो को अभिव्यक्त करते है। इस शैली में शोध हुआ है किन्तु अभी भी न जाने कितनी कलात्मक उपलब्धियाँ हैं जिन पर और शोध की आवश्यकता है। सम सामायिक समाज व संस्कृति का चित्रण सत्य रूप में पुराणों में ही उपलब्ध होता है। पुराण साहित्य स्वयं भगवान के श्रीमुख से, तीर्थकरों से निःसृत है। संदर्भ ग्रंथ :
१. भारतीय चित्रकला का इतिहास -अविनाश बहादुर वर्मा २. आदि पुराण पर्व ३. भारतीय चित्रकला - डॉ. एस. एन. सक्सेना ४. फाइन आर्ट इन इंडिया एंड सेलोन - विन्सेन्ट स्मिथ, प्र. ७७ ५. भारतीय चित्रकला - वाचस्पति गैरोला ६. पुराण साहित्य में जीवन मूल्य - डॉ पी. सी. जैन । ७. हड़प्पा की मोहरो पर जैन पुराण और आचरण के संदर्भ - डॉ रमेश चन्द्र जैन (प्राकृत
विद्या २००० प्र.स. ५४)
- विभागाध्यक्ष चित्रकला अकलंक गर्ल्स पी. जी. कॉलेज
कोटा (राजस्थान)