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समाधितन्त्र में प्रतिपादित अन्तरात्मा परमात्मा पद की सिद्धि चाहते हैं तो कषाय को कषाय समझो तथा उसका बुद्धिपूर्वक विसर्जन करो।सुन्दर शरीर, उत्तम सुख की आकांक्षा, विषयों की लिप्सा में बहिरात्मा अशरीरी भगवान् आत्मा को छोड़ देता है। तप को तपकर भी अधोगति के मार्ग पर आरूढ़ होता है, जबकि अन्तरात्मा इससे विपरीत तप के प्रभाव से स्वात्मा को परमात्म पद दिलाता है, परद्रव्यों से स्वात्मा को पृथक् रूप संवेदन करता है तथा प्रतिक्षण हित की भावना भाता है। जैसे ही भेद विज्ञान प्रकट होता है तो अन्तरात्मा दशा के उदित होते ही योग एवं उपयोग सभी निर्मल होने लगते हैं। क्योंकि पंचेन्द्रिय विषयों में रत पुरूष क्या कभी स्यन्दिभूत समरसी भाव शुद्धात्मा के ध्यान को प्राप्त कर सकता है? नहीं। क्योंकि सम्पूर्ण विषयों से भिन्न, मैं ज्ञानानंदी भगवती आत्मा हूँ। मैं अखण्ड चैतन्य पिंड हूँ, पर से कोई सम्बन्ध नहीं है। व्यवहार से भिन्न परन्तु निश्चय से अभिन्न मेरा धर्म है। व्यवहार परग्राही है, निश्चय स्वग्राही है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने कहा भी है- आत्माश्रितो निश्चयनयः पराश्रितो व्यवहारनयः। (समयसार-आत्मख्याति ३५२)
निश्चयनय आत्मा के आश्रित है और व्यवहारनय पर के आश्रित है, यह समझना चाहिए। आत्मा का आनंद तो आत्मा में ही है, परन्तु उसका स्वाद कैसे प्राप्त हो, इस विषय पर स्वयं प्रश्न करो। एक साथ दो प्रकार की अनुभूतियाँ संभव नहीं हैं। आश्चर्य है, भोले जीव कैसे असंयमी के निश्चयानुभूति स्वीकारते हैं, जबकि सर्वत्र अध्यात्म आगम के ग्रंथों में संयमाचरण के होने पर ही यह स्वीकार की गई है। पंचेन्द्रिय व मन पर जय होना अनिवार्य है, जिसके अन्तःकरण में मृगनयनी स्त्री का निवास है, उसके अन्दर परमब्रह्म स्वरूप कहाँ? व्यर्थ का प्रलाप मात्र है।
तत्त्वचर्चा करना सरल है, परन्तु तत्त्वानुभूति के लिए तद्प चर्या की आवश्यकता है। स्व में झांककर देखना चाहिए कि मेरे अन्तःकरण का परिणमन कैसा चल रहा है। कभी किसी इन्द्रिय विषय पर तो, कभी किसी पर जाकर रूकता है। पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ/अमनोज्ञ विषयों से परम उदासीनवृत्ति को स्वीकार करना होगा। जगत् में जीव के सर्वाधिक कष्टकारी इन्द्रिय विषय के उपभोग से कभी संतुष्टि नहीं होती, अपितु उनका दर्प अधिक-अधिक वृद्धि को ही प्राप्त होता है।
हमारे प्राचीन आचायों ने सर्वज्ञ वाणी के प्रचार प्रसार में अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को निकाला है। सम्पूर्ण विद्याओं पर लेखनी चलाई है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी को परम वरदान था, जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से श्रमण संस्कृति के वाङ्मय को नवीन चेतना प्रदान की है। आचार्य- देव की काव्यशैली की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह सब कम ही है। इस श्लोक में आचार्य भगवन् ने बहिरात्मा एवं अन्तरात्मा के मनोभावों का बहुत ही प्राजंल शैली से कथन किया है। बहिरात्मा शरीर की अवस्थाओं को आत्मरूप मानता है।
जबकि पुरूष स्वतंत्र रूप से चिद्स्वरूप है। उसमें भेद नहीं, कषाय नहीं, वासना नहीं, कामना नहीं, निश्चयनय अखण्ड ध्रौव्य चैतन्य ज्ञान धनस्वरूप, शब्द का विषय नहीं, नेत्रादिक का विषय नहीं। वह स्वात्मानुभव का विषय है,- ऐसा सम्यक् दृष्टि अन्तरात्मा विचार करता है, जड़-देह के धर्मों से अपने चैतन्य प्रभु की रक्षा करता है।