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समाधितन्त्र में प्रतिपादित अन्तरात्मा का न तो त्याग होता है, न ग्रहण होता है। इस प्रकार त्रिविध आत्मा के ग्रहण, त्याग की दृष्टि को समझकर मुमुक्ष जीवों को बहिरात्मा को हेय जानना चाहिए। अन्तरात्मा एवं परमात्मा को परम उपादेय समझना चाहिये।
आगे शिष्य पुनः पृच्छना करता है कि, भगवन्! अन्तरात्मा-अंतरंग का त्याग और ग्रहण किस प्रकार करे? इसका आचार्यदेव समाधान करते हुए कहते हैं -
युंजीत मनसाऽऽत्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत्।
मनसाव्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम्।। ४९।। अर्थात् आत्मा को मन के साथ संयोजित करें-चित्त और आत्मा का अभेद रूप से अध्यवसाय करें। वचन और काय से अलग करें, उन्हें आत्मा न समझें और वचन-काय से किए हुए व्यवहार को मन से छोड़ देवें, उसमें चित्त को न लगाएं।
शिष्य पुनः पूछता है, भगवन् ! जब अन्तरात्मा के सब विषयों से अरूचि हो जाती है फिर अन्तरात्मा की भोजनादि के ग्रहण में प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? यहाँ आचार्य भगवन् इसका स्पष्ट करते हैं कि
आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम्।
कुर्यादर्थवशात्किचिद्धाक्कायाभ्यामतत्परः।। ५०।। अन्तरात्मा को चाहिए कि वह आत्मज्ञान से भिन्न दूसरे कार्य को अधिक समय तक अपनी बुद्धि में धारण नहीं करे। यदि स्वपर के उपकारादिरूप से प्रयोजन के वश वचन और काय से कुछ करना ही पड़े तो उसे अनासक्त होकर करे।
अध्यात्म जीवन शैली जिनकी हैं, उन्हें अपना समय सतत् मौन साधना के साथ परमागम में व्यतीत करते रहना चाहिए। एक मात्र स्वद्रव्य को ही अपनी बुद्धि में स्थापित करना चाहिए। अन्य द्रव्यों को आत्म आँगन में अवस्थान नहीं देना चाहिए। उपयोग की धारा आत्मध्यान से जोड़े, संयोगी भावों से बुद्धिपूर्वक स्वयं को छोड़े, जगत् के कार्यों में रुचि न ले जाकर स्वकार्य में रुचि लगावें। श्रेय-मार्ग पर रुचि रखना मोक्षमार्गी का कार्य है। अन्तरात्मा को चाहिए कि वह आत्मज्ञान से भिन्न दूसरे कार्य को अधिक समय तक अपनी बुद्धि में धारण नहीं करे। यदि स्वपर उपकारादि रूप प्रयोजन के वश, वचन और काय से कुछ करना ही पड़े तो उसे अनासक्त होकर करे।
यहाँ शिष्य जिज्ञासा प्रकट करता है, भगवन्! अनासक्त हुआ अन्तरात्मा आत्मज्ञान को ही बुद्धि में धारण करे, शरीरादिक को नहीं, यह कैसे हो सकता है? आचार्यदेव समाधान करते हैं
यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रियः।
अतः पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम्।। ५१।। अर्थात् अन्तरात्मा को विचारना चाहिए कि जो कुछ शरीरादि बाह्य पदार्थ इन्द्रियों के द्वारा मैं देखता हूँ। वह मेरा स्वरूप नहीं है, किन्तु इन्द्रियों को बाह्य विषयों से रोककर स्वाधीन करता हुआ जिस उत्कृष्ट अतीन्द्रिय आनन्दमय ज्ञान प्रकाश को अंतरंग में देखता हूँ