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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012
94 प्रश्न - शिष्य पृच्छना करता है, प्रभु! भ्रांति को प्राप्त हुआ अन्तरात्मा उस भ्रांति को फिर कैसे छोड़े? आचार्य देव समाधान करते हैं
अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः।
क्वरुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः।। ४६।। अर्थात् अन्तरात्मा तब अपनी विचार परिणति को इस रूप करे कि यह जो दृष्टिगोचर होने वाला पदार्थ समूह है, वह सबका सब चेतनारहित/जड़ है और जो चैतन्य रूप आत्मसमूह है, वह इन्द्रियों के द्वारा दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए मैं किस पर क्रोध करूँ और किस पर संतोष व्यक्त करूं? ऐसी हालत में मैं रागद्वेष के परित्याग रूप मध्यस्थ भाव को धारण करता हूँ।
लोक में तत्त्वज्ञानी के लिए न कोई वस्तु तुष्टीकार है, न अतुष्टीकारक है। वह विचारता है जगत् में जो द्रव्य दिखाई देते हैं वे सब जड़ हैं, अचेतन हैं, उन्हें कोई ज्ञान नहीं। उन पर क्या रोश करूँ, क्या तोश करूँ, जड़-द्रव्यों पर रागद्वेष क्या करना। जो चैतन्य द्रव्य है, वह किसी को दिखाई नहीं देता। फिर किस पर रोश करें, किस पर संतोष करें। इसलिए मध्यस्थता को धारण करना ही काषायिक भावों में रक्षा करना है। परम ज्ञायक स्वभावी टंकोत्कीर्ण भगवती आत्मा की शरण को प्राप्त हो जाता है। जहाँ फिर रागद्वेष का आत्मा से अत्यंताभाव हो जाता है। अब आत्मा अन्तरात्मा की दशा को भी पार करके परमात्म दशा को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ शिष्य पृच्छना करता है, प्रभु! बहिरात्मा और अन्तरात्मा के त्याग एवं ग्रहण के विषय को किसप्रकार प्रतिपादित किया जाता है? आचार्यदेव इसका समाधान इस प्रतिपादन द्वारा करते हैं -
त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित्।
नान्तर्बहिरूपादानं न त्यागो निष्ठितात्मनः।।४७।। मूर्ख बहिरात्मा बाह्य पदार्थों का त्याग और ग्रहण करता है तथा आत्मा के स्वरूप का ज्ञाता अन्तरात्मा अंतरंग रागद्वेष का त्याग करता है और अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप निज भावों को ग्रहण करता है, परन्तु शुद्ध स्वरूप में स्थित जो कृत-कृत्य परमात्मा है उसके अंतरंग और बहिरंग किसी भी पदार्थ का न तो त्याग होता है और न ग्रहण होता है।
आचार्यदेव बहिरात्मा तथा अन्तरात्मा के त्याग पर लक्ष्यपात करते समझा रहे हैं। बहिरात्मा मोहोदय से जिन बाह्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करता है, उन्हीं में ग्रहण त्याग की क्रिया करता है। जिन द्रव्यों से राग होता है उन्हें ग्रहण करता है और जिसमें द्वेष बुद्धि होती है, उन्हें त्याग करता है। इस प्रकार रागद्वेष बुद्धि ग्रहण त्याग में भी करता है, जबकि आत्मा के स्वरूप को समझने वाला अन्तरात्मा रागद्वेष का त्याग करता है और अपने सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप निज भावों को ग्रहण करता है। परन्तु जो निज शुद्धात्मस्वरूप में तिष्ठा है, वह कृतकृत्य परमात्मा है। अनेक अंतरंग बहिरंग किसी भी पदार्थ