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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर ग्रंथ चरित्र-चित्रण प्रधान है वे किसी रूप में प्रेरणा प्रधान तो माने ही जा सकते हैं। दिगम्बर परंपरा के जिनसेन (प्रथम) का आदिपुराण, गुणभद्र का उत्तरपुराण, रविषेण का पद्मचरित्र, जिनसेन द्वितीय का हरिवंश पुराण आदि इसी कालखण्ड की रचनाएं है। श्वेताम्बर परंपरा में हरिभद्र की समराइच्चकहा, कौतूहल कवि की लीलावईकहा, उद्योतनसूरि की कुवलयमाला, सिद्धर्षि उपमितीभवप्रपंचकथा,शीलांक का चउपन्नमहापुरिसचरियं, धनेश्वरसूरि का सुरसुन्दरीचरियं विजयसिंहसूरि की भुवनसन्दरीकथा, सोमदेव का यशस्तिलकचम्पू, धनपाल की तिलकमंजरी, हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र, जिनचन्द्र की संवेगरंगशाला, गुणचन्द्र का महावीरचरियं एवं पासनाहचरियं देवभद्र का पाण्डवपुराण आदि अनेक रचनाएं हैं। इस कालखण्ड में अनेक तीर्थकरों के चरित्र-कथानकों को लेकर भी प्राकृत और संस्कृत में अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस काल की रचनाओं में पूर्वभवों की चर्चा प्रमुख रही है इससे ग्रंथों के आकार में भी वृद्धि हुई है, साथ ही एक कथा में अनेक अंतर कथाएं भी समाहित की गई है। इसके अतिरिक्त इस काल के अनेक स्वतंत्र ग्रंथों और उनकी टीकाओं में भी अनेक कथाएं संकलित की गई है- उदाहरण के रूप में हरिभद्र की दशवैकालिक टीका में ३० और उपदेशपद में ७० कथाएं गुम्फित है। संवेगरंगशाला में १०० से अधिक कथाएं है। पिण्डनियुक्ति और उसकी मलयगिरि की टीका में भी लगभग १०० कथाएं दी गई है। इस प्रकार इस काल खण्ड में न केवल मूल ग्रंथों और उनकी टीकाओं में अवान्तर कथाएं संकलित है, अपितु विभिन्न कथाओं का संकलन करके अनेक कथाकोशों की रचना भी जैनधर्म की तीनों शाखाओं के आचार्यों और मुनियों द्वारा की गई है - जैसे- हरिषेण का “बृहत्कथाकोश", श्रीचन्द्र का “कथा-कोश", भद्रेश्वर की “कहावली", जिनेश्वरसूरि का “कथा-कोष प्रकरण", देवेन्द्र गणि का “कथामणिकोश", विनयचन्द्र का “कथानक कोश", देवभद्रसूरि अपरनाम गुणभद्रसूरि का “कथारत्नकोष", नेमीचन्द्रसूरि का “आख्यानक मणिकोश", आदि। इसके अतिरिक्त प्रभावकचरित्र, प्रबन्धकोश, प्रबन्धचिंतामणि आदि भी अर्ध ऐहितासिक कथाओं के संग्रह रूप ग्रंथ भी इसी काल के हैं। इसी काल के अंतिम चरण में प्रायः तीर्थों की उत्पत्ति कथाएं और पर्वकथाएं भी लिखी जानी लगी थी। पर्व कथाओं में महेश्वरसूरि की ‘णाषपंचमीकहा' (वि.सं.११०९) तथा तीर्थ कथाओं में जिनप्रभ का विविधतीर्थकल्प भी इसी कालखण्ड के ग्रंथ है। यद्यपि इसके पूर्व भी लगभग दशवीं शती में “सारावली प्रकीर्णक" में शत्रुजय तीर्थ की उत्पत्ति कथा वर्णित है। यद्यपि अधिकांश पर्व कथाएं और तीर्थोत्पत्ति की कथाएं उत्तरमध्यकाल में ही लिखी गई हैं।
इसी कालखण्ड में हार्टले की सूचनानुसार ब्राह्मणपरम्परा के दुर्गसिंह के पंचतंत्र की शैली का अनुसरण करते हुए वादीभसिंहसूरि नामक जैन आचार्य ने भी पंचतंत्र की रचना की थी।
इसके पश्चात् आधुनिक काल आता है, जिसका आरंभ १९वीं शती से माना जा सकता है। इस काल में मुख्यतः हिन्दी भाषा में जैन कथाएं और उपन्यास लिखे गये। इसके अतिरिक्त कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने गुजराती भाषा को भी अपने कथा-लेखन का माध्यम बनाया। क्वचित रूप में मराठी और बंगला में भी जैन कथाएं लिखी गई। बंगला में जैन कथाओं के