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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012
92 तीव्र आस्थावान् होता है। जैसे अग्नि में मछली का जीवन असंभव है, उसी प्रकार मुमुक्षु भव्यवर भोगाग्नि को अपने जीवन के नाशक स्रोत स्वीकारता है। प्रतिक्षण अपने आपको भव भ्रमण से मुक्त करने को पुरुषार्थरत रहता है। अतः अन्तरात्मा उपादेयभूत है। इसके बाद द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म कलंक से रहित अति निर्मल परमात्मा का स्वरूप कहा है।
अन्तरात्मा कौन जीव होता है ? इसके तीन भेद किस प्रकार हैं ? इन सबके अनुशीलन में इस प्रकार कहा है जब संसारी जीव मिथ्यात्व का त्याग कर देता है, तब शरीरादि परद्रव्यों से आत्मबुद्धि समाप्त हो जाती है, तब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। वही सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा कहलाता है। इस अन्तरात्मा के उत्तम, मध्यम, जघन्य के भेद से तीन भेद हैं। १. उत्तम अन्तरात्मा- अन्तरंग एवं बहिरंग का त्याग करने वाले, विषय कषायों को जीतने वाले और शुद्ध उपयोग में लीन होने वाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर सप्तम अप्रमत्त संयत गुणस्थान से लेकर द्वादश गुणस्थान क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ (१२वें गुणस्थान) पर्यन्त के जीव उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं। २. मध्यम अन्तरात्मा- देशव्रत के पालक श्रावक तथा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में स्थित मुनिराज मध्यम अन्तरात्मा कहलाते हैं। ३. जघन्य अन्तरात्मा- अविरत सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान) गृहस्थ श्रावक जघन्य अन्तरात्मा है। इस प्रकार अन्तरात्मा के ये तीन भेद गुणस्थानानुसार हैं।
जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण में सोना, दुग्ध के मध्य घृत, तिल में तेल है, उसी प्रकार से शरीर के अन्दर परमात्म-शक्ति सम्पन्न सवरूप रूपी आत्मा है तथा जैसे काष्ठ में अग्नि शक्तिरूप से विराजमान है, उसी प्रकार यह भगवान् आत्मा शरीर में विराजमान है। उसे जो जानता है, वही पंडित है। किन्तु स्व शक्तिमान परमात्मा को जो नहीं जानता तथा नहीं मानता, वह बहिरात्मा है, और जो जानता भी है तथा मानता भी है, वही अन्तरात्मा/ज्ञानी/विवेकी/पंडित है। बाकी मात्र शास्त्र प्रवचन करने वाले भिन्न ही हैं। वे अन्तरात्मा हो भी सकते हैं, नहीं भी। इसलिए मोक्षमार्ग में जिसे पंडित कहा उसे ही समझना चाहिए। भूतार्थ पंडित तो भेदाभेद रत्नत्रय से मंडित आत्मा ही है, जो कि स्व के अन्दर के भगवान को जान रहे हैं।
वस्तुतः श्रमण संस्कृति प्रत्येक आत्मा को ईश्वर अंश न स्वीकार कर प्रत्येक आत्मा को ईश्वर शक्ति से युक्त स्वीकारती है। जो वर्तमान आत्मा है, वही आत्मा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ को करने वाली है।
आत्मज्ञान जिसके घर में प्रवेश कर जाता है, उसके परमानंद की लहरें उत्पन्न होने लगती हैं। सम्पूर्ण सुखों की खान निर्विकल्प आत्मध्यान है। बार-बार स्वानुभाव के दीप से प्रकाश कर स्व भवन में खोजने से एक उत्तर आया है, दुःख/पीड़ा- ये सब राग की पर्याएं ही हैं। राग है तो सर्वतः कष्ट/पीड़ा है। राग का अभाव जहाँ होता है, वहाँ तन में अग्नि लगने पर भी साम्यामृत का पान करते हैं, शुक्लध्यान श्रेणी आरोहण कर कैवल्य ज्योति को प्राप्त होते