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विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता जैन साहित्य के संदर्भ में
विक्रमादित्य की कीर्ति का उल्लेख किया है।
(१०) ई. पूर्व की मालवमुद्राओं में मालवगण का उल्लेख है, वस्तुतः विक्रमादित्य ने अपने पितृराज्य पर पुनः अधिकार मालवगण के सहयोग से ही प्राप्त किया था, अतः यह स्वाभाविक था कि उन्होंने मालव संवत् के नाम से ही अपने संवत् का प्रवर्तन किया। यही कारण है कि विक्रम संवत् के प्रारंभिक उल्लेख मालव संवत् या कृत संवत् के नाम से ही मिलते हैं।
(११) विक्रमादित्य की सभा के जो नवरत्न थे, उनमें क्षपणक' के रूप में जैनमुनि का भी उल्लेख है, कथानकों में इनका सम्बन्ध सिद्धसेन दिवाकर से जोड़ा गया है। किन्तु सिद्धसेन दिवाकर के काल को लेकर स्वयं जैन विद्वानों में भी मतभेद है। अधिकांश जैन विद्वान भी उन्हें चौथी-पांचवीं शती का मानते हैं, किन्तु जहां तक जैन पट्टावलियों का सम्बन्ध है, उनमें सिद्धसेन का काल वीर निर्वाण संवत् ५०० बताया गया है, इस आधार पर विक्रमादित्य और सिद्धसेन की समकालिकता मानी जा सकती है।
(१२) मुनि हस्तिमल जी ने इनके अतिरिक्त एक प्रमाण प्राचीन अरबी ग्रन्थ सेअरूल ओकूल (पृ. ३१५) का दिया था जिसमें विकरमतुन' के उल्लेख पूर्वक विक्रम की यशोगाथा वर्णित है। इस ग्रन्थ का काल विक्रम संवत् की चौथी-पांचवी शती है। यह हिजरी सन् से १६५ वर्ष पूर्व की घटना है।
इस प्रकार विक्रमादित्य (प्रथम) को काल्पनिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। मेरी दृष्टि में गर्दभिल्ल के पुत्र एवं शकशाही से उज्जैनी के शासन पर पुनः अधिकार करने वाले विक्रमादित्य एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, इसे नकारा नहीं जा सकता है। उन्होंने मालव गण के सहयोग से उज्जैनी पर अधिकार किया था, यही कारण है कि यह प्रान्त आज भी मालव देश कहा जाता है।
(१३) जैन परम्परा में विक्रमादित्य के चरित्र को लेकर जो विपुल साहित्य रचा गया है, वह भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि किसी न किसी रूप में विक्रमादित्य (प्रथम) का अस्तित्व अवश्य रहा है। विक्रमादित्य के कथानक को लेकर जैन परम्परा में निम्न ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं
१. विक्रमचरित्र - यह ग्रन्थ काश हृदगच्छ के देवचन्द्र के शिष्य देवमूर्ति द्वारा लिखा गया है। इसकी एक प्रतिलिपि में प्रतिलिपि लेखक संवत् १४९२ उल्लेखित है, इससे यह सिद्ध होता है कि यह रचना उसके पूर्व की है। इस ग्रंथ का एक अन्य नाम 'सिंहासन द्वात्रिंशिका' भी है। इसका ग्रंथ परिमाण ५३०० है। कृति संस्कृत में है।
२. विक्रमचरित्र नामक एक अन्य कृति भी उपलब्ध है। इसके कर्ता पं.सोमदेव सूरि हैं। ग्रंथ परिमाण ६००० है।
३. विक्रमचरित्र नामक तीसरी कृति साधुरत्न के शिष्य राजमेरू द्वारा संस्कृत गद्य में लिखी गई है। इसका रचनाकाल वि.सं. १५७९ है।
४. विक्रमादित्य के चरित्र से सम्बन्धित चौथी कृति ‘पञ्चदण्डातपत्रछत्र प्रबन्ध'