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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 जनाधार है उसे सर्वथा मिथ्या कहना भी एक दुस्साहस ही होगा।
(३) प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ गाथा सप्तशती, जिसे विक्रम की प्रथम-द्वितीय शती में सातवाहन वंशी राजा हाल ने संकलित किया था-उसमें विक्रमादित्य की दानशीलता का स्पष्ट उल्लेख है। यह उल्लेख चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य के सम्बन्ध में या उससे परवर्ती अन्य विक्रमादित्य उपाधिधारी किसी राजा के सम्बन्ध में नहीं हो सकता है, क्योंकि वे इस संकलन से परवर्ती काल में हुए हैं। अतः विक्रम संवत् की प्रथम शती से पूर्व कोई अवन्ती का विक्रमादित्य नामक राजा हुआ है यह मानना होगा। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि विक्रमादित्य हाल के किसी पूर्वज सातवाहन वंशी राजा से युद्ध क्षेत्र में आहत होकर मृत्यु को प्राप्त हुए थे। वह गाथा निम्न है -
संवाहणसुहस्स तोसिएण, देन्तेण तुहकरे लक्खं। चलणेण विक्कमाइच्च चरिअमणसिक्खिअंतिस्सा।।
- गाथा सप्तशती-४६४ (४) सातवाहन वंशी राजा हाल के समकालीन गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में बृहत् कथा की रचना की थी। उसी आधार पर सोमदेव भट्ट ने संस्कृत में कथा सरित्सागर की रचना कीउसमें भी विक्रमादित्य के विशिष्ट गुणों का उल्लेख है (देखें-लम्ब्क ६ तरंग १ तथा लम्बक १८ तरंग १)।
(५) भविष्य पुराण और स्कन्दपुराण में भी विक्रम का जो उल्लेख है, वह नितांत काल्पनिक है- ऐसा नहीं कहा जा सकता है। भविष्यपुराण खण्ड २ अध्याय २३ में जो विक्रमादित्य का इतिवृत्त दिया गया है- वह लोकपरम्परा के अनुसार विक्रमादित्य को भतृहरि का भाई बताती है तथा उनका जन्म शकों के विनाशार्थ हुआ ऐसा उल्लेख करता है। अतः इस साक्ष्य को पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता है।
(६) गुणाढ्य (ई. सन् ७८) द्वारा रचित बृहत्कथा के आधार पर क्षेमेन्द्र द्वारा रचित बृहत्कथा मंजरी में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है। उसमें भी म्लेच्छ, यवन, शकादि को पराजित करने वाले एक शासक के रूप में विक्रमादित्य का निर्देश किया गया है।
(७) श्री मद्भागवत स्कन्ध १२ अध्याय १ में जो राजाओं की वंशावली दी गई है, उसमें दशगर्दभिनोः नृपाः के आधार पर गर्दभिल्ल वंश के दस राजाओं का उल्लेख है। जैन परंपरा में विक्रम गर्दभिल्ल के पुत्र के रूप में उल्लेखित किया गया है।
(८) विक्रम संवत् के प्रवर्तन के पूर्व जो राजा हुए उसमें किसी ने विक्रमादित्य ऐसी पदवी धारण नहीं की। जो भी राजा विक्रमादित्य के पश्चात् हुए हैं- उन्होंने ही विक्रमादित्य का विरूद धारण किया है- जैसे सातकर्णी गौतमी पुत्र (लगभग ई. सन् प्रथम-द्वितीय शती) चन्द्रगुप्त-विक्रमादित्य (ई. सन् चतुर्थ शती) आदि। इन्होंने विक्रमादित्य की यशोगाथा को सुनकर अपने को उसके समान बताने हेतु ही यह ‘विरूद' धारण किया है। अतः गर्दभिल्ल पुत्र विक्रमादित्य इनसे पूर्ववर्ती हैं।
(९) बाणभट्ट के पूर्ववती कवि सुबन्धु ने वासवदत्ता के प्रस्ताविक श्लोक १० में