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विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता जैन साहित्य के संदर्भ में
पर यह तिथि अधिक उचित लगती है- क्योंकि कालक कथा के अनुसार भी वीर निर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् कालकसूरि ने गर्दभिल्ल को सत्ता से च्युतकर उज्जैनी में शक-शाही को गद्दी पर बिठाया और चार वर्ष पश्चात् गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने उन्हें पराजित कर पुनः उज्जैन पर अपना शासन स्थापित किया। दूसरी बार पुनः वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष और पांच माह पश्चात् शकों ने मथुरा पर अपना अधिकार शक शासन की नीव डाली और शक संवत् का प्रवर्तन किया। इस बार शकों का शासन अधिक स्थायी रहा। इसका उन्मूलन चन्द्रगुप्त द्वितीय ने किया और विक्रमादित्य विरूद धारण किया। मेरी दृष्टि से उज्जैनी के शक-शाही को पराजित करने वाले का नाम विक्रमादित्य था, जबकि चन्द्रगुप्त द्वितीय की यह एक उपाधि थी। प्रथम ने शकों से शासन छीनकर अपने ओ 'शकारि' विरूद से मण्डित किया था क्योंकि शकों ने उसके पिता का राज्य छीना था। अतः उसके शक अरि या शत्रु थे, अतः उसका अपने को ‘शकारि' कहना अधिक संगत था। दूसरे विक्रमादित्य ने अपने शौर्य से शकों को पराजित किया था अतः विक्रम-पौरूष का सूर्य था।
यद्यपि निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा विस्तार से उपलब्ध है किन्तु उसमें गर्दभिल्ल द्वारा कालक की बहिन साध्वी सरस्वती के अपहरण, कालकाचार्य द्वारा सिन्धु देश (परिसकूल) से शकों को लाने गर्दभिल्ल की गर्दभी विद्या के विफल कर गर्द भिल्ल को पराजित कर और सरस्वती को मुक्त कराकर पुनः दीक्षित करने आदि के ही उल्लेख है। उसमें विक्रमादित्य सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है- जैन साहित्य में विक्रमादित्य संबन्धी जो रचनाएं उपलब्ध हैं- उनमें बहत्त्कल्पचूर्णि (७वीं शती), प्रभावक चरित्र (१२७७ ई.), प्रबन्धकोश, प्रबन्ध चिंतामणि (१३०५ ई.), पुरातन प्रबन्ध संग्रह, कहावली (भद्रेश्वर), शत्रुज्जय महात्म्य, लघु शत्रुञ्जयकल्प, विविधतीर्थकल्प (१३३२ ई.), विधि कौमुदी, अष्टान्हिका व्याख्यान, दुष्माकाल श्रमण, संघस्तुति, पट्टावली सारोद्धार, खतरगच्छसूरिपरम्परा प्रशस्ति, विषायहारस्तोत्रं भाष्य, कल्याणमंदिरस्तोत्र भाष्य, सप्ततिकावृत्ति, विचारसार प्रकरण विक्रमचरित्र आदि अनेक ग्रंथ हैं, जिनमें विक्रमादित्य का इतिवृत्त किंञ्चित भिन्नताओं के साथ उपलब्ध है। खेद मात्र यही है ये सभी ग्रन्थ प्रायः सातवीं शती के पश्चात् के हैं। यही कारण है कि इतिहासज्ञ इनकी प्रामाणिकता पर संशय करते हैं। किन्तु आचार्य हस्तीमल जी ने दस ऐसे तर्क प्रस्तुत किये हैं, जिससे इनकी प्रामाणिकता पर विश्वास किया जा सकता है। उनके कथन को मैंने अपनी शब्दावली में आगे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है (देखें-जैनधर्म का मौलिक इतिहास, खण्ड-२ पृष्ठ-५४५-५४८)।
(१) विक्रमसंवत् आज दो सहस्त्राब्दियों से कुछ अधिक काल से प्रवर्तित है। आखिर इसका प्रवर्तक कोई भी होगा- बिना प्रवर्तक के इसका प्रवर्तन तो संभव नहीं है और यदि अनुश्रुति उसे 'विक्रमादित्य' (प्रथम) से जोड़ती है तो उसे पूरी तरह अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। मेरी दृष्टि में अनुश्रुतियां केवल काल्पनिक नहीं होती हैं।
(२) विक्रमादित्य से सम्बन्धित अनेक कथाएं आज भी जनसाधारण में प्रचलित हैं, उनका आधार कोई तो भी शायद रहा होगा। केवल उन आधारों को खोज न पाने की अपनी अक्षमता के आधार पर उन्हें मिथ्या तो नहीं कहा जा सकता है। जिस इतिहास का इतना बड़ा