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जैन-आगम के परिप्रेक्ष्य में : षट्खण्डागम का वैशिष्ट्य इन पांच भेदों से पूर्व के चौदह प्रभेद हैं। पूर्व के चौदह प्रभेदों में से दूसरा प्रभेद अग्रायणी पूर्व ही षटखण्डागम की विषय-सामग्री का मूलस्रोत है। षट्खण्डागम की विषय-सामग्री पर प्रकाश डालते हुए डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने लिखा है कि- “अग्रायणी पूर्व के पूर्वान्त
और अपरान्त आदि चौदह प्रकरण थे। इसमें पंचम प्रकरण का नाम चयन-लब्धि था, जिसमें बीस पाहुड विद्यमान थे। बीस पाहुडों में से चतुर्थ पाहुड का नाम कर्मप्रकृति था। इस कर्मप्रकृति पाहुड के कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों की विषयवस्तु को ग्रहण करके षट्खण्डागम के छह खण्डों की रचना हुई षट्खण्डागम का कुछ अंश दृष्टिवाद के दूसरे भेद सूत्र से एवं कुछ अंश पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति से उत्पन्न बताया है। रचनाकाल:
डॉ. ज्योतिप्रसाद ने षट्खण्डागम का संकलन ई. सन् ७५ स्वीकार किया है। इस प्रकार अनेक विद्वानों की सम्मति है कि षट्खण्डागम का रचनाकाल ई. सन् की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। षट्खण्डागम का मंगलाचरण :
इस ग्रन्थराज का एक वैशिष्टय यह भी है कि इस महान् ग्रन्थ का मंगलाचरण “णमोकार मन्त्र" सकल जैन समाज में सर्वश्रेष्ठ मन्त्र के रूप में समादरित है और इसे जैन धर्म का मूलमन्त्र एवं अनादिनिधन मन्त्र माना जाता है। इस महामंत्र का सर्वप्रथम लिखित उल्लेख इसी ग्रन्थराज के आदि में प्राप्त होता है। इस कारण षट्खण्डागम का अतिशय माहात्म्य है। षट्खण्डागम के षट् खण्ड की विषयवस्तु :
षट्खण्डागम में जैन दर्शन के आधारभूत और मौलिक “कर्मसिद्धान्त" की प्रक्रिया का निरूपण किया गया है। जैनधर्म की मान्यता है कि सभी प्राणी ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से आबद्ध हैं और इसी कर्म बंधन के कारण वे जन्म और मृत्यु के चक्र में पड़े हुए हैं। इन शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता और भोक्ता जीव ही है।
जीवात्मा अपने पुरुषार्थ, तप, ध्यान और संयम के द्वारा कर्म बन्धन से मुक्त होकर परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। इसके उपरांत वह जन्म-मरण के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है और पुनः संसार में उसका आगमन नहीं होता।
षट्खण्डागम में इन अष्टकमों और उनकी प्रकृतियों के बंध एवं उनके फल तथा उन्हें नष्ट करने की संपूर्ण प्रक्रिया निबद्ध है। षट्खण्डागम की संक्षिप्त विषयवस्तु निम्न प्रकार है:१. जीवट्ठाण -
इस प्रथम खण्ड में जीव के गुण-धर्म और विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व नामक आठ प्ररूपणायें तथा प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थान समुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीय महादण्डक, तृतीय महादण्डक, जघन्यस्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति एवं गति-आगति नामक नौ चूलिकाएँ