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जैन-आगम के परिप्रेक्ष्य में : षट्खण्डागम का वैशिष्ट्य ६१४ सिद्ध होता है और वे १९ वर्ष तक आचार्य पद पर रहे। इस प्रकार वे वीर नि.सं. ६१४ से ६३३ (ई. सन् ८७ से ई. सन् १०६) तक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। इस आधार पर अनेक विद्वानों ने आचार्य धरसेन का समय ई. सन् की प्रथम शती स्वीकार किया है।
यद्यपि आचार्य धरसेन के काल-निर्धारण में सभी शास्त्रीय प्रमाणों में साम्य नहीं है क्योंकि यतिवृषभाचार्यकृत तिलोयपण्णत्ति, वीरसेनाचार्यकृत धवला और जिनसेन के हरिवंशपुराण में लोहाचार्य तक का काल ही वी.नि.सं. ६८३ माना गया है। इस आधार पर धरसेनाचार्य का समय इसके बाद ही निर्धारित हो पायेगा।
आचार्य धरसेन गिरिनगर नामक नगर की चन्द्रगुफा में रहते थे और जैन सिद्धान्त के महान् ज्ञाता थे। उन्होंने द्वादशांग आगम में अवशिष्ट ज्ञान के संरक्षणार्थ योग शिष्यों की आवश्यकता अनुभव की और इस हेतु उन्होंने महिमानगरी में सम्मिलित यति संघ को पत्र लिखा। पत्र प्राप्त करके उन श्रेष्ठ आचार्यों ने विलक्षण प्रज्ञा और उत्कृष्ट चारित्र के धनी पुष्पदंत और भूतबलि नामक दो श्रेष्ठ मुनिराजों को धरसेनाचार्य के पास भेजा।
आचार्य धरसेन ने आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि की परीक्षा करके उन्हें योग्य पाकर षट्खण्डागम का विधिवत् ज्ञान देना आरंभ किया। आचार्यद्वय पुष्पदंत और भूतबलि ने एकाग्रता और विनयपूर्वक आषाढ़ शुक्ला एकादशी को षट्खण्डागम का ज्ञान पूर्णरूपेण प्राप्त कर लिया।
धरसेनाचार्य ने षट्खण्डागम का पूर्ण ज्ञान आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि को प्रदान करके उन्हें अपने पास से दूर भेज दिया। धरसेनाचार्य ने अपने शिष्यों को अपने पास से दूर भेज दिया? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में लिखा है कि-"धरसेनाचार्य ने अपनी मृत्यु को निकट जानकर यह विचार किया होगा कि कहीं मेरे मरण से मेरे इन शिष्यों को क्लेश न हो।"
यद्यपि उपलब्ध शास्त्रीय प्रमाणों से यह ज्ञात नहीं होता कि आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि के दीक्षागुरु कौन थे? परन्तु इस तथ्य में कोई संदेह नहीं कि धरसेनाचार्य के पास उपलब्ध आगम-ज्ञान के वे सच्चे उत्तराधिकारी थे और इस अर्थ में धरसेनाचार्य उनके शिक्षागुरु थे। आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि दोनों ने ही धर्मसेनाचार्य के यहाँ से विहार करके अंकुलेश्वर में वर्षावास सम्पन्न करके दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। दोनों ही करहाटक पहुंचे। इसके उपरान्त पुष्पदंत मुनि ने अपने भांजे जिनपालित से भेंट कर उसे दीक्षित किया और उनके साथ वनवास देश को प्रस्ताव किया और भूतबलि के द्रविड़ देश की मधुरा नगरी में प्रवास किया।
उपर्युक्त प्रसंग में आये स्थल करहाटक और वनवास देश की वर्तमान पहचान कते हुए डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने लिखा है कि-"...सतारा जिले का करहाड ही करहाटक हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वनवास देश उत्तर कर्णाटक का प्राचीन नाम है।"९ ___वनवास देश में आचार्य पुष्पदन्त ने सर्वप्रथम षटखण्डागम के 'बीसदिसूत्रों' की रचना की और उन्हें भूतबलि के पास भेज दिया। आचार्य पुष्पदंत ने जिन 'बीसदिसूत्रों की रचना की वे षट्खण्डागम के प्रारंभ के बीस मात्र नहीं है अपितु बीसदिसूत्रों से तात्पर्य सत्प्ररूपणा के बीस अधिकारों से है। इस प्रकार षट्खण्डागम की रचना का सूत्रपात हुआ।