________________
अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012
२. खुद्दाबन्ध -
इस खण्ड में मार्गणाओं के आधार पर यह वर्णन किया गया है कि कौन सा जीव कों का बन्धक है और कौन अबन्धक। इसमें स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, नाना जीव-काल, नाना जीव-अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम नामक ग्यारह अधिकार हैं। ३. बंधसामित्तविचय -
इसमें कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों का बन्ध करने वाले स्वामियों का वर्णन है अर्थात् कितनी कर्म प्रकृतियाँ किस जीव के किस गुणस्थान तक बंधती हैं। साथ ही स्वोदय बंधरूप
और परोदय बंधरूप प्रकृतियों की विवेचना भी की गयी है। ४. वेदना -
इस खंड में कर्मप्राभृत के चौबीस अधिकारों में से कृति और वेदना नामक दो अनुयोगद्वारों का वर्णन है परन्तु वेदना अनुयोगद्वार की प्रधानता के कारण इसे वेदनाखण्ड कहा जाता है।
वेदनाखण्ड में वेदना की विवेचना निक्षेप, नय, नाम, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रत्यय, स्वामित्व, वेदना, गति, अनन्तर, सन्निकर्ष, परिमाण, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व नामक सोलह अधिकारों के माध्यम से की गयी है।
इस वेदनाखण्ड की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसके प्रारंभ में भी ग्रंथकार ने मंगलाचरण किया है जिससे ग्रंथ के आदि के साथ-साथ मध्य में मंगलाचरण करने की परंपरा भी ज्ञात होती है। ५. वग्गणा -
इस खण्ड में बन्धन के चार भेदों में से एक बंध पर प्रकाश डालते हुए दूसरे भेद बंधनीय को प्रधान अधिकार बनाया गया है। इसमें २३ प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन करते हुए कर्मबन्ध के योग्य वर्गणाओं पर विशेष प्रकाश डाला गया है। इस वर्गणा खंड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगद्वारों का विशेष कथन है। ६. महाबंध -
यह खण्ड अत्यन्त विस्तृत है। इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में इस खण्ड का परिमाण तीस हजार श्लोक बतलाया है। इसमें कर्मबंध के प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध नामक चारों भेदों का विशद विवेचन किया गया है। षट्खण्डागम की टीकायें -
षट्खण्डागम का वैशिष्टय हम इस तथ्य से समझ सकते हैं कि इस ग्रंथराज पर जैन-परम्परा के लगभग सभी महान् आचार्यों ने टीकाओं की रचना की है। शास्त्रीय प्रमाणों में निम्न टीकाओं का उल्लेख प्राप्त होता है
१. परिकर्म टीका- इस टीका की रचना आचार्य कुन्दकुन्द (पद्मनन्दी) ने की थी। यह टीका षट्खण्डागम के तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण थी।