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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 प्रकृति का उतना ही भाग हमारे लिए है जितने से हम अपने जीवन यापन के लिए अनिवार्य सामाग्री की पूर्ति कर सकें। यदि हम अपनी आवश्यकताएं बढ़ाते हैं या चीजों को अनावश्यक संग्रह करके प्रकृति का अतिरिक्त दोहन करते हैं तो अंततः हम स्वयं को ही संकट में डालते
मोक्षमार्ग में यद्यपि अंतरंग परिणाम प्रधान है परन्तु उनका निमित्त होने के कारण भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है। मद्य, मांस, मधु व नवनीत तो हिंसा, मद व प्रमाद उत्पादक होने के कारण विकारी हैं ही, परन्तु पंच उदुम्बर फल कंदमूल, पत्र व पुष्प जाति की वनस्पतियाँ भी क्षुद्र त्रस जीवों की हिंसा के स्थान अथवा अनंतकायिक होने के कारण अभक्ष्य हैं। इनके अतिरिक्त बासी, रस चलित, स्वास्थ्य बाधक, अमर्यादित, संदिग्ध व अशोधित सभी प्रकार की खाद्य वस्तुएं अभक्ष्य हैं। दालों के साथ दूध व दही का संयोग होने पर विदल संज्ञानता अभक्ष्य हो जाता है। विवेकी जनों को इन सबका त्याग करके शुद्ध अन्न जल आदि का ही ग्रहण करना योग्य है। अभक्ष्य का स्वरूप -
__ जो पदार्थ खाने योग्य नहीं होते उन्हें अखाद्य कहा जाता है। हिंसाजन्य और दोषयुक्त पदार्थ भी अभक्ष्य कहलाते हैं। अभक्ष्य पांच प्रकार के हैं। १. त्रसघात कारक- जिन पदार्थों के सेवन में बहुत त्रस जीवों की हिंसा होती है ऐसे मांस, मदिरा, शहद, बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर, कमल की डंडी के समान पाले पदार्थ, घुना अन्न, अमर्यादित वस्तु, मुरब्बा, पुराना अचार, और द्विदल आदि के खाने से त्रसजीवों का घात होता है। अतः इन्हें त्रसकारक अभक्ष्य कहते हैं। २. प्रमाद कारक-जिन पदार्थों के सेवन से नशा या मादकता उत्पन्न होती है जैसे शराब, गांजा, भांग, अफीम, चरस, कोकीन, बीड़ी, सिगरेट, गुटका, तम्बाकू, आदि पदार्थ प्रमादवर्धक कहलाते हैं। ३. बहु स्थावर हिंसाकारक- जिन पदार्थों के सेवन से फल थोड़ा मिलता है पर जीव हिंसा बहुत होती है ऐसे मूली, गाजर, आलू, मक्खन, फूलगोभी, उदम्बर फल आदि पदार्थ बहुघात नामक अभक्ष्य कहलाते हैं। ४. अनिष्टकारक-जिन पदार्थों के सेवन से शरीर में वात, पित्त, कफ आदि प्रकुपित हो एवं जिससे रक्त विकार आदि दोष उत्पन्न हों उन्हें अनिष्टकारक अभक्ष्य कहते हैं। जैसे- दमा के रोगी को दही, जुकाम के रोगी को शीतल पेय आदि पदार्थ या विष मिट्टी आदि पदार्थ। ५. अनुसेव्य- जो पदार्थ सज्जन, सात्विक पुरुषों के द्वारा सेवन करने योग्य नहीं माने गये, ऐसे लार, कफ, जूठन, गोमूत्र, स्वमूत्र, शंखसीप आदि पदार्थ अनुसेव्य नामक अभक्ष्य कहलाते हैं। - इसके अलावा जैनधर्म में खाद्य पदार्थों की भी एक निश्चित काल मर्यादा बतायी गई है। उस मर्यादा या समय सीमा के बाद पदार्थ अखाद्य हो जाता है। विज्ञान के अनुसार खाद्य पदार्थ एक निश्चित अवधि के बाद सूक्ष्म जीवो के आक्रमण से दूषित होने लगता है।
जैन शास्त्र के अनुसार दवाओं की तरह खाद्य पदार्थ एक अवधि के पश्चात् खराब हो