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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012
११. आज के वैश्वीकरण, तकनीकी तथा वैज्ञानिक प्रगति के इस भौतिकतावादी, उपभोक्तावादी और आर्थिक महत्ता की सोच वाले युग में जैन संस्कृति द्वारा घोषित परिग्रह परिमाण के सिद्धान्त का व्यावहारिक दृष्टि से बहुमूल्य अवदान सिद्ध हो चुका है। इस स्वर्णिम सिद्धान्त का पालन करते हुए संपूर्ण विश्व विकास एवं शांति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। संपूर्ण विश्व को यह स्वीकार करना होगा कि अपरिग्रह के जीवन दर्शन पर आधारित अर्थ नीति ही संपूर्ण विश्व को विकसित कर सकेगी। अतः हम अपरिग्रह की संजीवनी बूटी को स्वीकार करें। परिग्रह को विचारपूर्वक घटाते जाएं। संतोष पूर्वक सादगी का जीवन सहजता से अपनाते जाएँ। वस्तुओं के वैभव को छोड़ते चलें। आध्यात्मिक वैभव की ओर मुड़ते चलें। हम अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करें। असीमित आकांक्षाओं का नियमन करें। अपनी इच्छाओं को सीमित करते हुए अपरिग्रह के सिद्धान्त के माध्यम से पूरे विश्व में सौहार्द, सद्भाव, मैत्री और शांति की स्थापना करें।
- ३० निशांत कालोनी,
भोपाल- ४६२००३
बोधकथा
संत विनोबा जी की माँ, जामण डालकर दही जमाती थी और साथ में राम का नाम लेती थी। विनोबा जब बड़े हो गये, उन्होंने मां से कहा कि हमें सब बातें समझ में आती हैं, लेकिन आपकी एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही। ये बताओ- दही जामण से जमता है या ईश्वर का नाम लेने से? या फिर दोनों से? यदि केवल जामण से जमता है, तो ईश्वर की क्या आवश्यकता है, उसका नाम लेना बंद करो। और यदि ईश्वर के नाम से जमता है, तो जामण डालना बंद करो।
माँ हँसकर बोली- बेटे ! जामण देने से ही दूध का दही बनता है। परन्तु ईश्वर का नाम इसलिए लेती हूँ कि जब सुबह अच्छा दही जम जाएगा तो मुझे अंहकार न आ जाये कि मैंने जमाया है, इसलिए राम का नाम लिया करती हूँ। मेरी श्रद्धा- मेरे इस कर्तापने और अहंकार को, कि मैं करता हूँ, इसको नष्ट करती है। अतः ईश्वर के प्रति श्रद्धा आवश्यक है। जीवन में ईश्वर का यह रोल, यह सहयोग बहुत जरूरी है। यदि मैं ज्ञानवान हूँ तो मुझे अहंकारी बनने से वह रोकता है।
(मुनि क्षमासागर जी : कर्म कैसे करें? प्रवचन से)