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राष्ट्र और समाज के हित में परिग्रह परिमाण व्रत की उपयोगिता अर्थात् (अतिवाहन) अधिक सवारी रखना (अतिसंग्रह) अनावश्यक वस्तुएं इकट्ठी करना (विस्मय) दूसरे का वैभव देखकर आश्चर्य करना (लोभ) लोभ करना और (अति भार वहनानि) बहुत भार लादना ये (पन्च) पाँच (परिमितपरिग्रहस्य) परिग्रह परिमाणाणुव्रत के (विक्षेपाः) अतिचार (लक्ष्यन्ते) कहे गये हैं। अन्य शब्दों में अधिक लाभ उठाने की दृष्टि से वाहनों का और उनमें जोते जाने वाले पशुओं का क्षमता से अधिक उपयोग करना, अधिक लाभ की अभिलाषा से धनधान्यादि को अधिक समय तक रोके रखना, विशिष्ट लाभ के होते हुए भी अधिक लाभ की लालसा करना, लोभवश वाहनों पर क्षमता से अधिक भार लादना ये परिग्रह- परिमाण अणुव्रत के पांच अतिचार हैं।
६. प्रत्येक मनुष्य बढ़ती हुई इच्छाओं के कारण परिग्रह का संचय करता है। वह परिग्रह का पूर्ण त्याग नहीं कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। अतः परिग्रह परिमाण व्रत का पालन करने वाले प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति द्वारा अपने विवेक एवं अपनी परिस्थितियों के अनुरूप अपनी इच्छाओं को परिमित या सीमित किया गया जाता है। प्रत्येक गृहस्थ के लिए यह आवश्यक है कि वह अपना व्यवसाय इतना अधिक न फैलाऐं, जिसकी वह स्वयं साज संभाल नहीं कर सकें और सदैव उसकी व्यग्रता बढ़ती रहे।
७. परिग्रह परिमाण का यह नियम हमें अपनी इच्छाओं को सीमित और नियमित करने का संदेश देकर अन्य प्रमुख नियमों- अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य- का पालन करने में सहयोग प्रदान करता है। यदि हम परिग्रह परिमाण के प्रमुख एवं आधारभूत नियम का पालन करने में सफल हो जाते हैं तो अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य संबंधी नियमों और प्रत्येक नियम के उपनियमों का पालन स्वयमेव ही सुनिश्चित हो जाता है। समंतभद्र स्वामी ने यह स्पष्ट घोषणा की है कि इन नियमों का पालन करने से हमें सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त हो सकती है एवं हमारे चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमें सरलता से प्राप्त हो सकते हैं।
८. चल-अचल संपत्ति के नियमन, सीमाकरण एवं न्यूनीकरण को बहिरंग परिग्रह कहा जाता है। बहिरंग परिग्रह के साथ-साथ अंतरंग परिग्रह का न्यूनीकरण अत्यावश्यक है। श्रमण संस्कृति में अंतरंग परिग्रह न्यूनीकरण का अत्यधिक महत्व है। चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ- अंतरंग परिग्रह की श्रेणी में आते हैं।
९. आंतरिक परिग्रह के कारागार का भवन क्रोध, मान, माया और लोभ के चार स्तंभों पर खड़ा रहता है। ये चारों कषाएं सद्गृहस्थ को अनेकानेक कष्ट पहुंचाती हैं। इन कषायों का त्याग या न्यूनीकरण किया जाना आवश्यक है। अतः हम क्षमा से क्रोध पर विजय प्राप्त करें। मृदुता और विनय के सद्गुणों से मान कषाय को नियंत्रित करें। सरलता से माया और संतोष से लोभ को विनियमित करें।
१०. हमारे महर्षियों द्वारा सुस्थापित अहिंसादिक पांचों अणुव्रतों का हमारे व्यक्तित्व के चतुर्मुखी विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अणुव्रतों के नियमों, उपनियमों और भावनाओं के माध्यम से हमारे चिंतन एवं व्यक्तित्व को परिष्कृत किया है। प्रत्येक व्यक्ति को सदाचार के पथ पर चलने की अनुपम ढंग से सीख दी है। अतः राष्ट्र और समाज के हित में परिग्रह परिमाण व्रत की अत्यधिक उपयोगिता एवं सराहनीय भूमिका है।