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भव-पार करानेवाला सदाचार
गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है
सत्य वचन मानस विमल, . कपट रहित कर लूति ।
तुलसी रघुवर सेवकहि,
सकहि न कलियुग जीति ॥ अगर तुम्हारी वाणी में सत्य है, मन में निर्मलता है, तुम्हारी क्रियाएँ कपट रहित हैं और तुम भगवान की भक्ति करने में तत्पर रहते हो तो कलियुग तुम्हें कभी भी जीत नहीं सकता। यानी उसे स्वयं भी तुम्हारे समक्ष पराजित होना पड़ेगा।
अतएव बंधुओ, प्रत्येक विचारशील प्राणी को सदाचार की शरण ग्रहण करना चाहिए । यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि दुराचारी व्यक्ति यहां से जितना अधिक पाप का भार लेकर प्रयाण करते हैं, उसी परिमाण में परलोक में भयानक कष्ट सहन करने के लिये बाध्य होते हैं। किन्तु इसके विपरीत सदाचारी पुरुष अपने शुद्ध एवं सरल हृदय की प्रेरणा से शुभ मार्ग पर चलता है तथा निर्भय एवं हलका रहकर परलोक की ओर प्रयाण करता है। वह कभी पाप के गड्ढे में नहीं गिरता, स्वयं ऊंचा उठता है तथा अपने संसर्ग से औरों को भी ऊंचा उठाता है । वह अपनी जाति और देश को सदाचार की सौरभ से महका देता है अर्थात् उन्हें प्रतिष्ठित और गौरवान्वित बनाता है। सदाचार को अपनाने और उसे दृढ़ बनाने का भगवान महावीर ने बहुत ही सुन्दर तरीका बताया है । कहा है
कि मे परो पासइ किं च अप्पा ,
किं वाहं खलियं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्म अणुपासमाणो,
अणागयं नो पडिबंध कुज्जा । प्रत्येक विवेकी और मुमुक्षु व्यक्ति को यह विचार करना चाहिए कि दूसरे लोग मुझ में क्या-क्या दोष देख रहे हैं ? मुझे स्वयं में क्या दोष दिखाई देते हैं ? क्या मैं उन दोषों का परित्याग नहीं कर रहा हूं ? इस प्रकार सम्यक रूप से अपने दोषों को देखनेवाला साधक भविष्य में कोई ऐसा कर्म नहीं करता, जिससे उसके शील और संयम में बाधा पहुंचे तथा कर्मों का बंधन हो । ____ आज हम क्रिया तो बहुत करते हैं किन्तु उसका असर नहीं होता। इसका क्या कारण है ? यही कि हम अपने कर्मों में सत्य, अहिंसा, दया, अक्रोध, संतोष
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