________________
१३०
आनन्द-प्रवचन भाग-४
कुछ दिन पहले मैंने आपको भर्तृहरि का एक श्लोक सुनाया था
येषाम् न विद्या न तपो न दानम्
ज्ञानम् न शीलम् न गुणो न धर्मः ते मृत्युलोके भविभारभूताः
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।। यानी, जिस व्यक्ति में विद्या, तप, दान, दया, शील आदि सद्गुण नहीं होते वह मनुष्य इस धरती पर भार-भूत होता है जैसे कि वन में चरने वाले
मृग।
उस दिन मैंने यह श्लोक आपके समक्ष रखा था और साथ ही पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषि जी म० द्वारा रचित काव्यों के आधार पर यह भी बताया था कि मृग ने स्वयं को निर्गुणी व्यक्ति की तुलना में अपने अनेक गुण बताते हुए इसके समकक्ष होने से इन्कार कर दिया था। तो कवियों ने मृग के स्थान पर पहले गाय और फिर कुत्ते को रखना चाहा । किन्तु हाल वही हुआ । यानी गाय और कुत्ते ने भी अपने अनेक और उत्तम गुण बताए तथा निर्गुणी पुरुष के लिए अपनी उपमा दिये जाने से इन्कार कर दिया।
किन्तु आज हम पुन: इस विषय को ले रहे हैं क्योंकि कवि भी पीछा नहीं छोड़ते । वे कहते हैं कि आखिर कोई प्राणी या कोई न कोई वस्तु तो उसके समान गुणहीन होगी ही। ऐसा निश्चय करके के वे श्लोक की अंतिम पंक्ति में सुधार करते हुए कहते हैं
। 'मनुष्य रूपेण खराश्चरन्ति ।' अर्थात् निर्गुणी, मनुष्य के रूप में गधे के समान हैं।
किन्तु यह बात गधे को भी पसन्द नहीं आई। और उसने क्या उत्तर दिया यह श्री त्रिलोकऋषि जी महाराज बताते हैं:
कहत गर्दभ शीत ताप खमू डील पर, गुणी गुणी भार लाऊँ लगड़े से भारी है । मल की सो घूटी देवें, काम आये औषधि में, मिट्टी में मिलावे जल होवे एक तारी है। शकुन सुलभ कहूँ, तुरत ही परगट, और जो करूं मैं मोझ मानन लिगारी है। और भी अनेक गुण मोय में नराधिपति, निगुणी की उपमा न लागत हमारी है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org